गुड - मैरिज बैड - मैरिज
(उपन्यास)
(हिन्दी संस्करण)
Book Overview
The author draws on his experience as a psychologist and as a relationship counsellor to bring into searing focus the inarticulate pain that children go through in a broken marriage.
It is the story of two teenage girls, Mannat and Eva, brought together by fate and the shared trauma of their parents’ crumbling relationships. With deep compassion, the author probes their uncomprehending pain and fears, their self-doubt, their loss of innocence, and their anger at a world that has betrayed them.
Their friendship helps them forge tools for survival and delineate identities for themselves from amongst the debris of their shattered childhood.
The author makes no judgment for parents too are fallible, and are victims of their own limitations. Nor does he offer solutions. He merely draws the reader’s attention to the consequences of such conflicts on children. In doing so, he offers perhaps the only possible key (as well as a roadmap) to resolving marital conflict – the understanding that becoming a parent is a choice, not a given. It is a choice that comes with the implicit clause of subsuming one’s own interests in favour of the young life until it reaches emotional adulthood.
At its core, it is a deeply spiritual book that lays bare the great karmic wheel of action and consequence, showing us a way to outwit the ever-turning cycle of suffering.
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संक्षिप्त विवरण
अपने-अपने माँ-बाप की आपसी कलह और नासमझी की शिकार दो टीन-एजर लड़कियों की कहानी है यह। अपने झुलसे हुए बचपन के अवशेषों में अपनी पहचान ढूंढते और अपनी ज़िंदगी का मतलब खोजते हुए किस्मत ने मन्नत और इवा को एक-दूसरे के करीब ला दिया - उनके अंतर्द्वंद और ज़िंदा रहने के लिए उनके संघर्ष की कहानी।
पति-पत्नी के लिए तलाक़ एक कानूनी विकल्प हो सकता है लेकिन उनके अबोध बच्चों के पास क्या विकल्प है? भय, अपराध-भावना, शक, उदासी, चिंता या क्रोध से ग्रसित इन बच्चों के लिए बड़े होना भी एक दुखदायी प्रक्रिया है। यह कहानी प्रश्न खड़े करती है। शादी के बंधन मे घुट-घुट कर जीने वाले जोड़े हों या कोई फिर कोई कानूनी समाधान खोजते हुए पति-पत्नी – हरेक को अपने उत्तर और अपने विकल्प इसमे से खुद तलाशने होंगे।
रोज़मर्रा ज़िंदगी मे अहम का टकराव हो या लंबी कानूनी लड़ाई - दोनों मे से कोई भी जीत सकता है पर बच्चे तो हारते ही हैं। इंसानी रिश्तों और समाज की अच्छाई पर से उनका विश्वास उठ जाता है जिसकी भरपाई शायद कभी नहीं हो सकती। एक मनोवैज्ञानिक और रिलेशनशिप काउन्सलर के लंबे अनुभव के आधार पर लिखी गई है यह वेदना कथा।
समर्पण
माँ और पापा को
पापा ने सिखाया कि मज़बूत इरादों के सामने कोई लक्ष्य मुश्किल नहीं है
माँ ने समझाया कि किसी को माफ कर देने से सुख आता है
प्रस्तावना
कुलतारन छतवाल जी का उपन्यास, गुड-मैरिज बैड-मैरिज मनोविज्ञान की अन्तर्धारा से सराबोर है। एक कविता की लहर जो शुरू से अन्त तक मानव मन को उन्मादित ही नहीं उद्वेलित भी करती रहती है। कुलतारन जी की कविताओं को मैं पढ़ती रहती हूँ। मानव मन को समझने और जानने की जो सहसंवेदना इनमे है, दुर्लभ है।
आज समाज जिन विसंगतियों से गुज़र रहा है, परिवार टूट रहे हैं, न्यूक्लियर परिवार भी अणु-अणु में विखंडित हो रहे हैं, उन परिवारों में बच्चे किन मानसिकताओं से गुज़र रहे हैं – पूरी-की-पूरी किताब उसका दर्पण है।
मनोवैज्ञानिक उपन्यासों में काव्यात्मक शैली का विशेष महत्व रहता है। ले मार्क के अनुसार, प्रत्येक प्राणी में अपने आपको वातावरण के अनुकूल बनाने की अन्तःप्रेरणा होती है, और तभी व्यक्ति का रूपांतर होता है। कुलतारन जी के उपन्यास में माता-पिता की उपेक्षा और संवेदनहीनता बच्चों के रूपांतरण का कारण बनते हैं। चारो ओर फैली इन समस्याओं के चेहरे अनायास पाठक की आँखों के सामने नाच जाते हैं।
एक बार हाथ में लेने के बाद विस्मृति की अवस्था में पाठक पुस्तक को खत्म किये बिना नहीं रह सकता। हिन्दी साहित्य जगत में यह पुस्तक 'गुड़-मैरिज बैड-मैरिज' एक विशिष्ट स्थान लेगी, कोई शक नहीं है।
कुलतारन जी को अशेष साधुवाद।
सस्नेह
डॉ शेफालिका वर्मा । दिल्ली । 6 जुलाई, 2017
आभार
इस उपन्यास को पढ़ने के निर्णय के लिए आपका आभार।
मुझ जैसे अनियमित दिनचर्या वाले इन्सान के द्वारा उपन्यास पूरा कर लिया जाने से सबसे ज़्यादा हैरानगी मुझे है। स्टूडेंट्स, टीचर्स और पेरैंट्स के साथ करियर-वर्कशॉप्स और विवाहित जोड़ों के साथ बैड-मैरिज से गुड-मैरिज की रोमांचक और रोमांटिक यात्रा पर लंबी गुफ्तगू के चलते कभी इतना वक़्त ही नहीं मिला कि रिश्तों की बारीकियों के बारे में अपने अनुभवों को किसी दस्तावेज़ की शक्ल दे सकूँ।
मेरी पत्नी और मेरे दोनों बच्चे दीपिन्दर और हरलीन पिछले कई सालों से हर दिन मेरी क्लास लेते रहे, “आपकी किताब कहाँ तक पहुंची?” परिवार के सहयोग और प्रोत्साहन के चलते एक मनोवैज्ञानिक से कथाकार बनने तक की मेरी यात्रा सहज हो गई।
मैं आभारी हूँ अपनी अर्द्धांगिनीं वरिंदर का – उनके साथ मिलकर ही यह सीखा कि मुद्दों पर असहमति हो सकती है परन्तु रिश्तों की अहमियत पर नहीं। रोज़मर्रा की दौड़-धूप भरी ज़िन्दगी में रिश्तों की डोर में खिंचाव आने पर उसे ढील देकर टूटने से बचाने की कला मैंने उन्हीं से सीखी। उपन्यास लिखने के लंबे अंतराल में उन्होंने न केवल मुझे घर के सभी दायित्वों से मुक्त कर दिया बल्कि लेखन प्रक्रिया के सबसे कठिन पड़ाव प्रूफ-रीडिंग में भी सहायता की।
जहां गुरप्रीत और हरलीन का अपने परिवार के प्रति समर्पण मुझे नए विचारों पर काम करने की प्रेरणा देता रहा वहीं मेहरदीप और जशनदीप का जोश, और कुछ-न-कुछ नया सीखते रहने की उनकी जिज्ञासा मुझे बच्चों की ज़िंदगी में उनके पेरैंट्स की सकारात्मक भूमिका को समझने में सहायक रही।
इस उपन्यास पर अधिकतम काम मैंने अपने मस्कट प्रवास के दौरान किया। इस अवधि में दीपिन्दर और प्रीति मेरे लिए प्रेरणादायक वातावरण, लेखन के लिए आवश्यक तकनीकी सहायता और कॉफी ब्रेक्स इत्यादि की सुविधाएं निरंतर मुहैया करवाते रहे। उन दोनों के साथ हर शाम को उपन्यास की कथा-वस्तु पर गप-शप और अपने पेरैंट्स के अच्छे मानवीय मूल्यों के साथ पलते-बढ़ते नन्हें दिवदीप की जादुई झप्पी मेरी दिन भर की थकन मिटा देती।
मेरे स्टूडेंट्स और अंतरंग रिश्तों पर अपनी जिज्ञासा लेकर आने वाले विवाहित जोड़ों का मैं आभारी हूँ, उन्होंने मुझे वह सिखाया जो मेरी मनोविज्ञान की पढ़ाई-लिखाई नहीं सिखा सकी।
सम्पादन मे अमूल्य सहयोग के लिए डॉ नीरू का आभारी हूँ - अपनी व्यस्तताओं के बावजूद उन्होंने यह काम पूर्ण निष्ठा और दक्षता से किया। कथानक के बारे में सुझावों के लिए निरुपा जोशी और विभा रे का आभार। नोशन प्रैस चेन्नई की सक्षम और समर्पित टीम का आभार - प्रकाशन से जुड़े हर कदम पर मार्गदर्शन करते हुए उन्होंने मुझे पूर्ण सहयोग दिया।
विशेष रूप से आभारी हूँ प्रख्यात लेखिका और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित डॉ शेफालिका वर्मा जी का। उनका प्रशंसक हूँ और कई वर्षों से उनसे पहचान है। उनसे निवेदन करते समय, साहित्य-जगत में उनके बेहद ऊँचे स्थान और उनकी व्यस्तता का एहसास था परन्तु जिस विशाल हृदय और स्नेह से उन्होंने मुझ जैसे नए कथाकार के उपन्यास की पाण्डुलिपि पढ़ने के लिए हाँ कह दी, मन अभिभूत हो उठा। उनकी कलम से लिखे शब्द मेरे जीवन का सब से बड़ा पुरस्कार है। हृदय से उनका आभार।
भूमिका
कुदरत ने मर्द और औरत को एक दूसरे के लिए सम्मोहन दिया तो समाज ने इसे शादी और परिवार का स्वरूप दे कर इन्सान की ज़िन्दगी को एक मकसद दे दिया। आर्थिक सुरक्षा, सुख-सुविधाएं, बच्चों का उज्ज्वल भविष्य, समाज में एक उचित स्थान और अहम किरदार कुछ ऐसे शक्तिशाली सपने हैं जो इन्सान को संघर्ष की प्रेरणा और ज़िन्दगी का मकसद देते हैं। अपने सपने पूरे करने के लिए इन्सान को प्रतिदिन एक नई जंग लड़नी पड़ती है और हर दिन नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
परिवार एक ऐसा सुरक्षित स्वर्ग है जहाँ आकर इन्सान में नई शक्ति और स्फूर्ति का संचार होता है और आने वाले दिनों में संघर्ष का सामना करने की मानसिक द्रढ़ता भी यहीं से प्राप्त होती है। अपने परिवार के लिए कुछ कर पाने का अवसर और क्षमता ज़िन्दगी में नया रंग भर देते हैं। पति-पत्नी एक-दूसरे के प्रति समर्पण की भावना रखते हुए न केवल अपने बच्चों को सक्षम बनाते हैं बल्कि समाज के निर्माण में भी सहायक होते हैं। वे अपने बच्चों को यह विश्वास दिलाते हैं कि लोग अच्छे हैं और ज़िन्दगी एक उत्सव है।
विद्यार्थियों और अवयस्कों को सफलता के गुर सिखाते-सिखाते और उनके माता-पिता से बात करते-करते यह बात मेरी समझ में आ गई कि बच्चों की सफलता और उनके मानसिक स्वास्थ्य में उनके घर के वातावरण का कितना महत्व है।
इस उपन्यास को लिखने का मेरा उद्देश्य यह है कि वैवाहिक सम्बन्धों में टकराव की स्थिति से उनके बच्चों पर पड़ने वाले असर पर अपनी चिंता और व्यथा पाठकों से सांझा कर सकूँ। इन बच्चों का मानसिक उत्पीड़न और उनके पेरैंट्स की नासमझी मुझे बहुत कष्टकारक लगते हैं। ऐसे परिवारों में पले कई बच्चों को मैंने नज़दीक से देखा है और उनकी तकलीफ को महसूस किया है।
बदकिस्मत हैं वे लोग जो अपनी नासमझी और दुराग्रह से अपने घर को एक यंत्रणा-गृह बना देते हैं और इस क़ैद में वे खुद भी छटपटाते रहते हैं। इनमें से कुछ तो हालात के साथ समझौता करते हुए अपनी ज़िन्दगी को एक सज़ा की तरह काट देते हैं और कुछ लोग आने वाले अच्छे दिनों की उम्मीद में अपनी ज़िन्दगी का एक बेहतरीन हिस्सा अदालतों और वकीलों के चक्कर लगाते हुए काट देते हैं। मैंने कई बार देखा है कि डायवोर्स के बाद भी लोग खुश नहीं हैं, अलग होकर भी एक-दूसरे की ज़िन्दगी में झाँकते रहते हैं और दूसरे के दुख में अपना सुख तलाश करते हैं। मनोचिकित्सकों के पास आने वाले वयस्कों में बड़ी संख्या में वही लोग होते हैं जिनका अपने जीवन साथी के साथ तालमेल कम होता है।
जिन घरों में आपसी विश्वास और आदर नहीं होता, वहाँ बच्चे अपनी पहचान और अपने आत्म-सम्मान की अंतहीन खोज में मारे-मारे फिरते हैं। अपने अंतर्द्वंद में वे इतने उलझ जाते हैं कि न तो किसी से अपने मन की बात कह सकते हैं और न ही उन्हें अपनी सोच पर विश्वास होता है। पूरी ज़िन्दगी अपने भीतर की लड़ाई लड़ते रहते हैं - इन्सानी रिश्तों से उनका विश्वास उठ जाता है। अधिकतर दंपति अपने बच्चों को अपनी ज़िन्दगी का मकसद मानते हैं पर अपने अहं और अपनी छोटी सोच के चलते यह भूल जाते हैं। ऐसे बच्चों की भावनात्मक उथल-पुथल और ज़िंदा रहने के लिए उनकी जद्दोजहद उन्हें तोड़ सकती है या उन्हें विद्रोही भी बना सकती है।
जिन घरों में सहज संवाद की परंपरा नहीं है और बच्चों को अपने मन की बात कहने से पहले मानसिक दबाव से गुज़रना पड़ता है, तो बेहद ग़लत है। किसी इन्सान को जब कहने की आज़ादी नहीं होती तो वह सुनना भी बंद कर देता है। मेरे पास अपने 15-16 साल के बच्चों को काउन्सलिन्ग के लिए लाने वाले पैरेंट्स में से अधिकतर यहाँ से बात शुरू करते है, “सर, यह हमारी बात सुनती नहीं है।” उन्हें यह कौन समझाए कि जब वह कहना चाहती थी कह नहीं पाई, अब वह आपकी नहीं सुनेगी।
पति-पत्नी के लिए तलाक़ एक विकल्प है और वे अपने ऐसे निर्णय और उसके परिणामों के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं। लेकिन उनके अबोध बच्चों के लिए ऐसा कोई विकल्प नहीं है, वे तो सिर्फ इसके शिकार हैं। तलाक के लिए कोई लंबी कानूनी लड़ाई हो या इकट्ठे रहते हुए पति-पत्नी के बीच रोज़मर्रा का टकराव, दोनों में से कोई भी जीत सकता है पर बच्चे तो सदा हारते ही हैं। इन्सानी रिश्तों की खूबसूरती से उनका विश्वास उठ जाता है जिसकी भरपाई शायद कभी नहीं हो सकती। भय, अपराध-भावना, शक, उदासी, चिंता या क्रोध से ग्रसित इन बच्चों के लिए अपना घर ही यंत्रणा-गृह बन जाता है। ऐसे बच्चे भाग्य के थपेड़ों से ही आगे बढ़ते हैं क्योंकि जिनके कंधों पर इनकी ज़िन्दगी सँवारने की ज़िम्मेदारी थी, वे तो अपने आपको भी नहीं संभाल सके।
कुछ बच्चे ऐसे माहौल में पलते हैं जहाँ वातावरण में खुलापन और आपसी रिश्तों में विश्वास होता है। अपनी बात कहने की आज़ादी होती है – बिना किसी झिझक के वे अपनी बात कहते हैं और उनकी बात सुनी भी जाती है। ऐसे बच्चों में प्रायः आत्म-विश्वास अधिक होता है, अपने निर्णय वे खुद लेते हैं और उन्हें ज़िन्दगी की समझ भी अधिक होती है। करियर में सफलता हो या रिश्ते निभाने की कला, ये बच्चे अच्छी तरह सीखते हैं।
सभी दंपति प्यार और विश्वास से अपने रिश्तों की शुरुआत करते हैं पर रिश्तों की डोर एक बार अगर उलझ जाए तो उसका ओर-छोर नहीं मिलता। मेरी समझ के अनुसार रिश्ते निभाने की कला सबसे बड़ी लाइफ-स्किल है - हर स्किल के समान इसे भी सीखा जा सकता है, सिखाया जा सकता है और वक्त के साथ इसका विकास किया जा सकता है। यह सब सीखने के लिए पति-पत्नी के रिश्ते के फ़लसफे को समझना आवश्यक है।
किसी कानूनी समाधान को खोजने से पहले उलझे रिश्ते को अपने स्तर पर संभालने और सँवारने की कोशिश करें – यदि आवश्यक समझें तो किसी बड़े-बुज़ुर्ग या किसी दोस्त से मदद लेने में हिचकिचाएँ नहीं। अपने बच्चों की लाइफ स्टेज़ और उनकी व्यथा को समझें और उनकी मुश्किलों को बढ़ाएँ नहीं। किसी रिश्ते में यदि अलग हो जाना ही एकमात्र विकल्प बचा है तो सही समय पर तलाक ले लेना बेहतर है।
परंतु अलग होने से पहले दो बातों पर अवश्य विचार करें। तलाक के बाद की ज़िंदगी आसान नहीं होती, अपने आप को और अपने सोशल सपोर्ट सिस्टम को अच्छी तरह से जांच कर ही कोई निर्णय लें। और दूसरी यह कि अलग हो जाने के निर्णय से पहले बच्चों की उम्र, उनकी मनोदशा और उन पर इसके दूरगामी परिणामों पर मिल कर सोचें और दोस्तों की तरह अलग हो जाएँ।
एक काउन्सलर होने के नाते यह उपन्यास मैंने एक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से लिखा है। पात्रों के घुटे संवाद और उनके मुखर मौन के पीछे छिपे मनोभावों को पकड़ने की कोशिश की है मैंने। इसमें संवाद कम हैं, मन की अंधेरी-संकरी गलियों में रोशनी के लिए छटपटाते और एक-दूसरे से कटे पात्रों की भावनात्मक उथल-पुथल का लेखा-जोखा है यह। कथा के प्रवाह और पठन में सरलता के लिए इसमें मैंने कहीं-कहीं साधारण बोल-चाल में प्रयोग होने वाले उर्दू और अँग्रेज़ी शब्दों और वाक्यों का सहारा लिया है, आशा है कि पाठक इसे स्वीकार करेंगे। हालांकि यह एक सेल्फ-हेल्प बुक नहीं है, लेकिन यह मेरा कर्तव्य बनता है कि मैं एक रिलेशनशिप काउंसलर के रूप में अपने लंबे अनुभव के दौरान कुछ अंतर्दृष्टि साझा करूं। पति-पत्नी तलाक से पहले कुछ बातों का ध्यान अवश्य रखें।
पहला, यह कि तलाक के बाद जितनी मेहनत और जितने कम्प्रोमाइज़ नए जीवन साथी को चुनने में और उसके साथ एडजस्ट होने में लगते हैं उससे कम कोशिश में शायद बिगड़ा हुआ रिश्ता भी संभल सकता है।
दूसरा, भले ही आपने तलाक लेने का फैसला कर लिया हो, फिर भी कोई अंतिम फैसला लेने से पहले किसी रिलेशनशिप काउंसलर से सेकंड ओपिनियन अवश्य ले लें।
तीसरा, सभी उम्र के बच्चे माता-पिता के तलाक से प्रभावित होते हैं, और उनकी प्रतिक्रियाएं उनकी उम्र और विकास के चरण के अनुसार बदलती रहती हैं। पर उचित यह होगा, तलाक के समय, बच्चों की कम से कम इतनी उम्र और इतनी समझ तो होनी ही चाहिए कि वो जान सकें कि उनके लिए तलाक का क्या मतलब है जिससे कि वो अपनी चिंताओं को वो व्यक्त कर सकें। माता-पिता को उनके अपराधबोध, असुरक्षा, भय आदि की नकारात्मक भावनाओं को शांत करने में उन्हे सहयोग करना चाहिए।
चौथा - यदि संभव हो तो, बच्चों पर माता-पिता के ब्रेकअप के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के लिए उचित समय और तौर-तरीकों के बारे में प्रोफेशनल हेल्प ले लेनी चाहिए। इससे उन्हें अपने नए पारिवारिक ढांचे के साथ तालमेल बिठाने में मदद मिलेगी।
पांचवां, पति-पत्नी को मिल बैठ कर ब्रेक-अप स्क्रिप्ट तैयार करनी चाहिए और एक दूसरे के साथ सामान्य सहयोग करना चाहिए। ब्रेकअप से पहले, उसके दौरान और बाद में उनका सहयोग, बच्चों के सुचारु रूप से नई ज़िंदगी में सेटल होने में मदद करता है और उन पर नकारात्मक परिणामों को कम करता है।
मित्रों, यह कहानी कोई समाधान या उत्तर नहीं देती है बल्कि प्रश्न खड़े करती है। गुड-मैरिज और बैड-मैरिज के स्केल में आप कहाँ फिट होते हैं, आप स्वयं तय करें। कुछ ग़लत है तो ‘दोनों मिल कर’ उसे ठीक कीजिये और अगर सब कुछ ठीक है तो एक-दूसरे का धन्यवाद करते हुए इस खूबसूरत रिश्ते को नई ऊँचाई पर लेकर जाएँ - अपने बच्चों के लिए सही फुट-प्रिंट्स छोड़ें। मुझे आशा है कि यदि पति-पत्नी इसे पढ़ कर खुले मन से इस पर चर्चा करेंगे तो शायद उन्हें या उनके बच्चों को किसी मैरिज काउन्सलर के पास नहीं जाना पड़ेगा। आपको मेरी कोई बात यदि अच्छी लगे तो अपने जीवन साथी के साथ, अपने मित्रों के साथ और अपने बच्चों के साथ इसकी चर्चा अवश्य करें। आपके सुझावों और प्रश्नों का सदैव स्वागत है।
कुलतारन छतवाल
kschhatwal.com
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जोशी जी ने जब आकर बताया कि गीता अपनी सीट पर बैठी रो रही है, रमन का गुस्सा तो जाता रहा पर मन ग्लानि से भर उठा। आज सुबह से लेकर अब तक के घटनाक्रम के बारे में जितना सोचता गया उतना ही मन में अवसाद घिरता गया।
अब अपने आप पर गुस्सा आ रहा था और शर्मिंदगी भी हो रही थी – बिना पूरी बात समझे तूफान खड़ा कर दिया। जोशी जी के जाने के बाद गहरी साँस ले कर अनमने भाव से, कुर्सी की सीट से पीठ टिका वह अपने ख़यालों में गुम हो गया। मेज़ पर रखी चाय यों ही पड़ी रह गई। थोड़ी देर में धीरु भाई कप उठाने आए - जैसे ही उन्होंने कप में पड़ी चाय को देखा तो अपना हाथ पीछे खींच लिया। रमन की तंद्रा टूटी, “ले जाओ धीरु भाई, ठंडी हो गई है।”
धीरु भाई ने हिचकते हुए पूछ लिया, “साहब, और ले आऊँ?”
“नहीं भाई अभी रहने दो - थोड़ी देर में ले आना,” रमन ने लंबी श्वास भर कर कहा।
अनुशासन के मामले में जोशी जी कुछ सख्त थे और रमन से भी हमेशा यही कहते थे, “सर, पर्सनल लाइफ अपनी जगह है और डिसिप्लिन अपनी जगह - डिसिप्लिन में अगर थोड़ी भी ढील दे दो तो माहौल बिगड़ते देर नहीं लगती।” पर जब उन्होंने गीता के रोने वाली बात बताई तो उनके लहज़े में छिपे दर्द और शिकायत का भाव रमन ने भाँप लिया।
दरअसल आज कुछ महत्वपूर्ण एक्सपोर्ट कन्साइनमैंट जाने हैं और उनकी इन्वायसेस वगैरह गीता को ही बनानी थी। ऐसे में उसके देरी से आने से सारा काम रुका हुआ था।
कच्चे माल की खरीद के अतिरिक्त प्रशासन इत्यादि का सब काम जोशी जी के ही जिम्मे था और वे बहुत दक्षता से सारा काम-काज देखते थे। एक अच्छे और कुशल प्रशासक होने के बावजूद उनकी शख्सियत का दूसरा पहलू यह भी था कि वे सभी स्टाफ सदस्यों को अपने बच्चों के समान मानते थे और सब लोग भी अपना सुख-दुख उनसे कह लेते थे। हालाँकि काम की क्वालिटी और डिसिप्लिन के मामले में रमन को कोई समझौता पसंद नहीं था पर दफ्तर के प्रशासन और रोज़मर्रा के काम-काज में रमन का कोई दखल नहीं रहता था और न ही रमन ने आज तक किसी को टोका था।
जोशी जी सुबह साढ़े आठ बजे ऑफिस आ जाते थे। अन्य सभी लोग नौ बजे तक आते थे।
आज सुबह से जोशी जी गीता को फोन लगा रहे थे किन्तु उसका फोन बंद था। जब रमन ऑफिस पहुँचा तो पता चला कि गीता अभी तक नहीं आई है और ट्रक की रवानगी का काम रुका हुआ है। रमन ने खुद भी उसे फोन लगाया किन्तु उसका फोन बंद था। हॉल में खड़े-खड़े कई बार गीता का नंबर डायल करने पर भी कॉल नहीं मिली तो वह वहीं जोशी जी के सामने रखी कुर्सी पर बैठ गया। उसने कई बार कोशिश की पर बार-बार वही रिकॉर्डिड उत्तर कि “आपके द्वारा डायल किया गया नंबर स्विच्ड ऑफ है।”
आमतौर पर रमन अपने कमरे में ही बैठता है – यदि किसी से बात करने हॉल में आता भी है तो केवल खड़े-खड़े ही बात करके चला जाता है। उसे तनावपूर्ण भाव-भंगिमा के साथ इस तरह जोशी जी के सामने बैठे देख कर ऑफिस में सन्नाटा छाया हुआ था। सभी लोग कुछ सहमे-सहमे से लग रहे थे।
जोशी जी ने हिम्मत करके बात शुरू की, “सर, आप इत्मीनान रखिए, मैं अभी किसी को भेज कर पता लगवाता हूँ।”
लेकिन रमन ने उनकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। धीरु भाई पानी का गिलास ले कर रमन के पास गए लेकिन उसने अनदेखा कर दिया और बार-बार गीता का नंबर डायल करता रहा। सभी लोगों की नज़रें घड़ी पर टिकी थीं और एक-एक क्षण जैसे बहुत लम्बा लग रहा था।
गीता करीब 11 बजे आई। बदहवास और तेज़ कदमों से चलती हुई जब वह ऑफिस के अंदर दाखिल हुई तो रमन को हॉल में बैठे देख कर सन्न रह गई। रमन को अभिवादन करके वह जब अपनी सीट पर जाने लगी तो रमन के चेहरे पर तनाव और क्रोध देखकर उसके कदम जैसे वहीं ज़मीन से चिपक गए। रमन बस एकटक उसे घूर रहा था - गीता के अभिवादन का कोई उत्तर न देकर उसने अपनी घड़ी की ओर देखा। गीता सकपका कर बोली, “सारी सर, लेट हो गई।”
रमन का चेहरा गुस्से से लाल हो गया और तेज़ आवाज़ में बोला, “मैडम आप घर जाइए, आपके बिना भी इस ऑफिस में काम हो जाएगा - और आपने अपना फोन क्यों बंद किया हुआ है?”
गीता ने कुछ जवाब नहीं दिया और चुपचाप अपनी सीट की ओर जाने लगी। रमन ने उसे जाते हुए देखा तो बहुत ऊँची आवाज़ में बोला, “इर्रिस्पोंसिबल !”
जैसे ही उसकी तेज़ आवाज़ हाल में गूँजी, सब लोग सकते में आ गए। गीता नज़रें झुकाए हुए जाकर अपनी सीट पर बैठ गई और कंप्यूटर खोल कर काम शुरू कर दिया। रमन कुछ देर तक वहाँ बैठा गीता की तरफ गुस्से से देखता रहा और फिर उठ कर तेज़ कदमों से चलता हुआ अपने कमरे में चला गया। जोशी जी बिना कुछ कहे उसे जाते देखते रहे और फिर अपनी सीट से उठ कर गीता की सीट के सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गए।
आज तक कभी ऐसी स्थिति नहीं आई थी कि उसे इतना गुस्सा आया हो। अपने कमरे में आ कर काफी देर तक रमन सहज नहीं हुआ - चुपचाप अपनी सीट पर गुम-सुम सा बैठा रहा। अपने मन के तर्क-वितर्क से, अपने व्यवहार को सही साबित करने की कोशिश करने लगा।“
कुछ तो सब लोग गीता की कार्यकुशलता और उसकी लगन के कायल थे और दूसरी बात यह कि मृदु भाषी और धीमे स्वर में बोलने वाले रमन का ऐसा रूप आज तक किसी ने नहीं देखा था। ऐसे में रमन के इस अप्रत्याशित व्यवहार से सभी लोग सहम-से गए थे।
हर रोज़ सुबह रमन जैसे ही ऑफिस पहुँचता था तो जोशी जी उसके कमरे में आ जाते और दिन में किए जाने वाले कामों की रूपरेखा बनाते परंतु आज जोशी जी नहीं आए – रमन इंतज़ार करता रहा।
पूरे ऑफिस का वातावरण असहज था और खामोशी छाई थी। सब लोग चुपचाप अपना काम कर रहे थे। यहाँ तक कि स्टाफ को आज समय पर चाय भी नहीं मिली। ऑफिस में चाय का समय 11 बजे का है। इसमें थोड़ी सी देरी भी लोगों को बेचैन कर देती थी क्योंकि चाय के लिए उनकी लालसा नशे की लत से कम नहीं थी। लेकिन आज यह सब अलग था। किचन का काम देखने वाले धीरु भाई गीता की सीट के पास खड़े, इनवॉयसेस और पैकिंग लिस्ट वगैरह स्टैपल करते रहे -और चाय में देरी की शिकायत किसी ने नहीं की।
रमन अपने कमरे में बैठा था लेकिन उसे इस बात का एहसास था कि बाहर का माहौल सहज नहीं है। लगभग 12 बजे तक माल दिल्ली के लिए रवाना हो पाया। उसके बाद धीरु भाई चाय बनाने किचन में गए। आज की इस घटना से ऑफिस का माहौल बेहद बोझिल हो गया। सबको लग रहा था कि गीता के साथ कुछ ज़्यादती हुई है लेकिन फिर भी सबके मन में रमन के प्रति नाराज़गी न हो कर हैरानगी और अविश्वास का भाव ज़्यादा था।
सब लोग अपना टिफिन साथ लेकर आते थे और धीरु भाई सुबह ही सबका डिब्बा उनकी टेबल से उठा कर हॉट केस में रख दिया करते। आज धीरु भाई अपनी डिब्बे रखने वाली दिनचर्या को भूल कर गीता के साथ खड़े हो कर काम करवाते रहे। करीब साढ़े बारह बजे सभी को चाय देने के बाद धीरु भाई को याद आया कि आज डिब्बे तो हॉट केस में रखे ही नहीं। यह एक ऐसा अपवाद था कि धीरु भाई जब एक-एक करके टिफिन उठा रहे थे तो सबकी आँखों में कुछ ऐसे प्रश्न थे जिनका कोई उत्तर नहीं था और न ही कोई किसी उत्तर की अपेक्षा कर रहा था। सभी स्टाफ सदस्य बहुत दबी ज़ुबान में, केवल बहुत ज़रूरी बातचीत ही कर रहे थे। इस दौरान जोशी जी भी खामोश रहे।
ट्रक रवाना होने के कुछ देर बाद जोशी जी रमन के कमरे में गए, “सर माल चला गया है, रात तक एजेंसी के पास पहुँच जाएगा। बुकिंग तो सुबह ही होनी है। गीता से कह दिया है कि आगे से ऐसी गलती न हो - सर उसे भी अपनी ग़लती का एहसास है। अभी अपनी सीट पर बैठी रो रही है - वैसे लड़की काम में ठीक है और अपनी ज़िम्मेदारी भी समझती है।“
इतना कह कर जोशी जी ने रमन की ओर देखा पर उसने न तो कुछ कहा और न ही आज के अपने व्यवहार के लिए कोई सफाई दी। इसी दौरान धीरू भाई कमरे में आए और टेबल पर दो कप चाय रख दी।
कुछ देर की चुप्पी के बाद जोशी जी ने कहा “आपको तो पता ही है कि कई दिन से उसका बेटा बीमार चल रहा है। कल सुबह से हॉस्पिटल में भर्ती है। शाम तक उसे बहुत तेज बुखार हो गया था इसलिए वह यहाँ से सीधा अस्पताल गई थी। रात भी उसकी तबीयत काफी खराब रही, कोई दवाई असर नहीं कर रही थी। हॉस्पिटल में चार्जर न होने से उसका फोन बंद हो गया था। सीधा वहीं से आई है - सुबह से कुछ खाया भी नहीं। बेचारी पागल सी हुई फिर रही है। जैसे ही डॉक्टर साहब राउंड पर पहुँचे तो उनके साथ बात करके ऑफिस आ गई क्योंकि कल का काम पैंडिंग था। अभी रो रही थी - उसके लिए चाय बिस्किट भिजवा कर आया हूँ। हो जाता है कभी-कभी ऐसा। बस एक ही धुन सवार है उस पर कि बेटे को बड़ा आदमी बनाना है। पति है नहीं – सास-ससुर बहुत बुज़ुर्ग हैं। पता नहीं वह इतना सब कुछ कैसे कर पाएगी। बड़ी लंबी लड़ाई है - भगवान उसकी मदद करे।”
जोशी जी उसे जब गीता के बारे में बता रहे थे तो रमन को आभास हो गया कि उनकी आवाज़ में गीता के प्रति सहानभूति के अतिरिक्त कुछ शिकायत का भाव भी था। उन्होंने साफ तौर पर तो नहीं कहा किन्तु इशारों-ही-इशारों में अपनी बात कह दी कि रमन का गुस्सा उचित नहीं था। जोशी जी के जाने के बाद रमन की उदासी और गहरी हो गई – अचानक मन बोझिल हो उठा।
कुछ दिन पहले जोशी जी ने बताया था कि गीता का बेटा बीमार है पर उसे यह नहीं पता था कि वह अभी तक ठीक नहीं हुआ और अब हॉस्पिटल में भर्ती है। एक बार तो उसका मन हुआ कि गीता को बुला कर उससे माफी माँग ले किन्तु कुछ ऑफिस के अनुशासन और कुछ उसके अहं ने उसे रोक दिया। फिर सोचा कि गीता को बुला कर कम-से-कम अपनी स्थिति स्पष्ट कर दे किन्तु उसे बुलाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। यह खयाल भी आया कि गीता को बुला कर उसके बेटे का हाल ही पूछ ले। काफी देर सोचने के बाद उसे लगा कि जब तक वह इस मनोस्थिति से बाहर नहीं आएगा, सहज नहीं हो सकेगा। इसी उधेड़-बुन में जोशी जी को अपने कमरे में बुला लिया। जोशी जी जल्दी ही आ गए, “जी सर।”
कुछ रुकी-रुकी आवाज़ में रमन ने पूछा, “क्या हाल है गीता के बेटे का?” उसके बातचीत के अंदाज से जोशी जी समझ गए कि रमन को अपनी गलती का एहसास हो गया है।
“अभी ज़्यादा ठीक नहीं है। शायद कुछ दिन और हॉस्पिटल में रहना पड़ेगा।” जोशी जी ने सपाट आवाज़ में उत्तर दिया।
रमन ने फिर कहा, “गीता से कह दीजिये कि अगर ज़रूरी है तो एक-दो दिन की छुट्टी ले ले। कुछ पैसे की समस्या हो तो भी आप देख लीजिएगा।”
“जी सर, छुट्टी के बारे में बोल दूँगा पर पैसे की मदद तो शायद वह नहीं लेगी, बहुत स्वाभिमानी है। फिर भी मै देख लूँगा।” कह कर जोशी जी चले गए।
गीता के पति का तीन साल पहले देहांत हो चुका था। नालागढ़ में किसी फैक्ट्री में काम करता था - वहाँ स्कूटर पर घर आते हुए एक्सिडेंट में उसकी मृत्यु हो गई तो वह अपने बेटे को लेकर पालमपुर में अपनी ससुराल में रहने आ गई। बीए पास थी - पालमपुर आ कर उसने कंप्यूटर का कोर्स कर लिया। रमन के ऑफिस में पिछले एक-डेढ़ साल से काम कर रही है। ऑफिस का कोई अनुभव न होने के कारण शुरू में उसे ठीक से काम आता नहीं था पर वह देर तक बैठती और सब से पूछ-पूछ कर अपना काम पूरा करके ही जाती थी। ज़्यादातर खाँसी-जुकाम से परेशान रहती पर कभी भी बीमारी की वजह से छुट्टी नहीं लेती थी। उसके काम में ग़लतियां निकलने से रमन को कभी-कभी कोफ्त होती थी पर उसने कभी बुला कर उसे डाँटा नहीं था। जोशी जी उसे बुला कर प्यार से उसकी ग़लती समझाते पर फिर भी वह बहुत डर जाती थी। अब तो वह अपना काम बहुत अच्छी तरह और पूरी ज़िम्मेदारी से करती है।
गीता का रोता हुआ चेहरा और हॉस्पिटल की बेड पर लेटे हुए बीमार और कमज़ोर बच्चे की शक्ल बार-बार रमन की आँखों के सामने आ जाती। बिन बाप के उस बच्चे पर दया आने लगी।
आज जो हुआ, ठीक नहीं हुआ – किसी का गुस्सा, किसी पर निकल गया। सोचते-सोचते रमन को लगा कि उसकी आँखें नम हो रही हैं। समझ में नहीं आ रहा था कि यह मनोस्थिति अपने आज के व्यवहार पर ग्लानि के कारण है, गीता की दयनीय परिस्थिति से, भूख की वजह से या फिर अपने घर में घुटन और बेचारगी की वजह से।
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हालाँकि सर्दी का मौसम जा रहा है पर पिछले कई दिन से लगातार रुक-रुक कर होने वाली बारिश से मौसम ने फिर करवट ली है और ठंडक बढ़ गई है। पानी के अनगिनत चश्मों और भरपूर हरियाली के चलते इस छोटे से पर्वतीय शहर पालमपुर का सम्मोहन सैलानियों को सदा से आकर्षित करता रहा है। दूर-दूर तक फैले हुए चाय के बागान कुदरत द्वारा बिछाए हुए मखमली गलीचों की तरह लगते हैं। पहाड़ी क्षेत्र है पर इसकी ऊँचाई अधिक नहीं है। विशालकाय धौलाधार पर्वत शृंखला यहीं से शुरू होती है और पूरा साल बर्फ से ढकी चोटियां निकट होने से यहाँ गर्मियों में भी मौसम ज़्यादा गर्म नहीं होता है। पिछले कुछ सालों से बारिश कम होने के कारण कई चश्मे लुप्त हो चुके हैं पर जब बारिश कई दिन लगातार चलती है तो मौसम बहुत ठंडा हो जाता है।
रमन ने अपनी ई-मेल खोल कर काम में मन लगाने की कोशिश की। इस पर भी उसका ध्यान काम में नहीं लगा तो खिड़की का पर्दा हटाया और शीशा खोल कर खड़ा हो गया। सुबह से धूप नहीं निकली थी और तेज़ ठंडी हवा चल रही थी।
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पहाड़ों की ठंड में दुबकी लंबी रातें जब वक़्त की बागडोर, सूरज की पहली किरण के हाथ में थमाती हैं तो जीवन प्रफुल्लित हो उठता है। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे हों या फिर पहाड़ों के सीधे-साधे लोग, खिली धूप से सब में जीवन का संचार हो जाता है। सुबह की शुरुआत अगर खुली धूप से न हो तो जीवन जैसे थम-सा जाता है।
आज सुबह से घने बादल हैं और हल्के कोहरे के कारण सड़कें कुछ गीली-सी हैं। आवाजाही बहुत कम है - अपने कंधे सिकोड़े और बगलों में हाथ दबाए इक्का-दुक्का लोग ही दिखाई दे रहे हैं। पहाड़ी ढलान पर दूर तक नीचे की तरफ जाती हुई सड़कें, तीखे मोड़ों के कारण साँप-सी बल खाती लगती हैं। दोपहर होने को आई है परंतु कोहरे के चलते ज़्यादातर गाड़ियों की हैडलाइट्स दिन में भी जल रही हैं। जब कोई गाड़ी ऊपर चढ़ती हुई, पहाड़ के पीछे आ जाती है तो उसकी लाइट दिखनी बंद हो जाती है पर कुछ ही मिनट के बाद वह फिर से दिखाई देनी शुरू हो जाती है। बिल्कुल सामने चौड़ी सड़क पर दुकानों की बेतरतीब सी लाइन है और एक यू-टर्न के बाद उसके ठीक नीचे वाली सड़क पर कुछ बहुत पुराने सरकारी दफ्तर हैं। गहरे हरे रंग के घने पेड़ों के बीच दूर तक फैले हुए मकानों की लाल-हरी नालीदार चादरों से बनी छतों की कतारें पहाड़ों की विशिष्ट वास्तु-शैली को दर्शाती हैं – ऐसा लगता है जैसे बच्चों ने माचिस की डिब्बियों के घर बनाए हों।
बिल्कुल सामने कुछ निचाई पर बने ‘गंगा भोजनालय’ की लाल रंग की छत और आगे का कुछ हिस्सा दिखता है। सुबह जैसे ही धूप आती है, वहाँ नेपाली मजदूरों का जमघट लग जाता है – इनमें से ज़्यादातर लोग सीज़न में चाय के बागानों में काम करते हैं और जब वहाँ काम नहीं होता तो सब प्रकार की मजदूरी कर लेते हैं। दुकान के अंदर से रोटी की थाली और भाप निकलती हुई गर्म चाय का कप ले कर ये लोग बाहर धूप में आ जाते हैं। कुछ लोग सड़क के साथ नगरपालिका द्वारा लगाए बैंचों पर बैठे होते हैं और कुछ सड़क के किनारे लगी रेलिंग से पीठ टिकाए खड़े होते हैं। अपने घर से दूर रोज़ी-रोटी की तलाश में आए इन मेहनतकश मजदूरों की ज़िन्दगी में शायद सुबह का ही वक़्त होता है जब खाना खाते और एक-दूसरे से हँसते-बतियाते, सारे दिन की कड़ी मेहनत के लिए वे अपने शरीर और मन को तैयार कर लेते हैं।
जितनी देर तक खिली धूप होती है, वहाँ बहुत चहल-पहल रहती है। आस-पास के गांवों से कोर्ट-कचहरी या ख़रीदारी के लिए आए लोग, स्कूल-कॉलेज के लड़के-लड़कियाँ और आस-पास के दफ्तरों में काम करने वाले बाबू लोग बाज़ार के इस हिस्से को गुलज़ार कर देते हैं। धूप की गर्माहट में चाय की चुस्कियाँ लेते और यहाँ का मशहूर ब्रेड पकौड़ा खाते बड़े-बुज़ुर्ग गाँव के सरपंच से लेकर मुख्य-मंत्री तक को राजनीति और प्रशासन के गुर बताते हैं और ऐसा लगता है कि यहीं बैठ कर देश के विकास की रूप-रेखा तय की जाती है। आज धूप नहीं है - कोहरे और सर्दी की वजह से कुछ ही लोग बाहर खड़े चाय पी रहे हैं, ज़्यादातर लोग आज अंदर ही बैठे हैं।
गर्मियों की ठंडक हो या सर्दियों की बर्फबारी, पहाड़ हर मौसम में सैलानियों को आकर्षित करते हैं। किन्तु यहाँ रहने वालों की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी और उनके मन की स्थिति पर मौसम के बदलते रंगों के असर को सिर्फ पहाड़ के लोग ही समझ सकते हैं। पहाड़ों का आकर्षण बहुत तीव्र होता है पर यहाँ से जब किसी का मन ऊब जाता है तो ज़िन्दगी अपने आप में एक यंत्रणा लगने लगती है।
शायद अपनी मनस्थिति के कारण ही रमन को सब लोग उदास-से लग रहे थे। बाहर का दृश्य अच्छा नहीं लगा तो उसने शीशा बंद करके पर्दा खींच दिया और बैठ कर फिर से अपना लैपटॉप खोल लिया
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आज दिन की शुरुआत ही ठीक नहीं हुई। न चाहते हुए भी आज सुबह सुनन्दा से झगड़ा हो गया और ऑफिस में आते ही गीता वाली बात हो गई और सारा गुस्सा उस पर निकल गया।
अब पूरे शरीर और सिर में तेज़ दर्द है, हाथ-पैर ठंडे हो रहे हैं पर आँखों में जलन है और गला सूखा जा रहा है – ऐसा लग रहा है कि जैसे चेहरे और माथे की धमनियों में चलता हुआ खून उबल रहा है। धीरु भाई को बुला कर उसने फिर गरम चाय मँगवाई और उसके साथ दवा ली।
इवा ने कल जब रमन को बताया था कि छुट्टियों में उसकी एक दोस्त साथ आना चाहती है तो उसे कुछ अजीब-सा लगा। आमतौर पर हॉस्टल में पढ़ने वाले बच्चे छुट्टियों का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं ताकि अपने घर जा सकें। ऐसे में उसकी दोस्त की अपने घर न जाकर पालमपुर आने वाली बात कुछ अटपटी-सी लगी। उसने पूछ लिया, “बेटा कौन है वह? अपने घर क्यों नहीं जा रही है?
“पापा मेरी अच्छी दोस्त है - मन्नत नाम है उसका - जयपुर की रहने वाली है – मैं ही उसे साथ लेकर आ रही हूँ”, इवा ने बताया। इवा ने फिर कहा, “पापा अगर आपको ठीक नहीं लगता तो मैं मना कर दूँगी।”
इवा का मन रखने के लिए रमन ने हाँ तो कह दी किन्तु इसके साथ ही उसका तनाव बढ़ गया। पहले तो मन हुआ कि कहे, अपनी मम्मा से पूछ लो पर इसलिए चुप कर गया कि सुनन्दा ने मना कर दिया तो इवा का दिल टूट जाएगा। इवा ने अपनी दोस्त को पहले ही कह रखा था इसलिए रमन ने भी हाँ कर दी लेकिन उस वक्त उसने ऐसा सोचा भी नहीं था कि यह छोटी सी बात उसके लिए इतनी बड़ी परेशानी पैदा कर देगी।
इवा ने यह भी बताया था कि छुट्टियाँ शुरू हो चुकी हैं लेकिन कोई लड़की अभी घर नहीं जा सकती। शायद कुछ विषयों में एक-दो दिन एक्सट्रा क्लासेस लगनी हैं। प्रिन्सिपल के आदेश के बाद ही घर जाने की बात सोची जा सकती थी।
आज इवा के फोन का इंतज़ार है कि उसने कल आना है या नहीं। रमन को इन्टरनेशनल ट्रेड फेयर में भाग लेने के लिए परसों सुबह मुंबई जाना है।
इवा से मिलने की प्यास कई दिन से रमन को बेचैन किए थी, उससे मिल कर ही जाना चाहता था। यदि वह इवा को मिले बिना मुंबई चला जाता है तो शायद इवा को बुरा लगेगा। वैसे तो रमन न भी जाता पर जब उसे पता चला कि उसके कुछ विशेष ग्राहक भी वहाँ आ रहे हैं तो उसने वहाँ जाने का प्रोग्राम बना लिया – उनके साथ मीटिंग है, 2-3 दिन लग सकते हैं। रमन की कोशिश है कि इवा के घर आने के बाद ही वह मुंबई जाए। यह तभी संभव है अगर इवा कल तक यहाँ पहुँच जाती है। यदि वह कल न आकर अगले दिन आती है तो रमन का जाना मुश्किल है।
रमन कल से कोशिश कर रहा था कि इवा के साथ मन्नत के आने वाली बात सुनन्दा को बता दे पर उसे डर भी लग रहा था – हो सकता है कि वह इसी बात का बुरा मान जाए कि इवा ने इस बारे में सुनन्दा से क्यों नहीं पूछा।
आज सुबह नाश्ता शुरू करते वक़्त उसने सुनन्दा को बताया, “अभी कुछ देर में इवा का फोन आएगा कि कल आना है या नहीं। शायद कल ही आएगी पर अभी पक्का नहीं है - उसका फोन आ जाए तो जोशी जी चंडीगढ़ के लिए निकल जाएंगे।”
सुनन्दा ने बिना कुछ कहे कटोरी में दही डालना शुरू किया।
रमन ने आगे बात शुरू की, “उसकी एक दोस्त भी साथ आ रही है, छुट्टियों में शायद यहीं रहेगी।”
सुनन्दा का हाथ वहीं रुक गया और चेहरा कुछ सख्त हो गया। “कौन सी दोस्त है?”, कुछ क्षण रुक कर उसने पूछा।
रमन ने उसकी आवाज़ की तल्खी को नज़रअंदाज़ करते हुए कहा,“ मन्नत नाम है - उसके साथ ही पढ़ती है।”
सुनन्दा ने अपने नाश्ते की प्लेट को दूर खिसकाते हुए कहा, “मुझसे तो इवा ने इस बारे में कोई बात नहीं की।”
रमन ने सफाई देते हुए बात संभालने की कोशिश की, “मुझे भी कल शाम ही बताया था उसने।”
डाइनिंग टेबल पर बैठे-बैठे रमन को एहसास हो गया कि सुनन्दा को कुछ अच्छा नहीं लगा यह सुन कर। रमन मन-ही-मन सोच रहा था कि सहज होने के लिए क्या कहा जाए कि सुनन्दा ने बिना रमन की ओर देखे एक प्रश्न हवा में उछाल दिया, “तुमने मना नहीं किया?”
रमन ने सहजता से उत्तर दिया, “इवा ने उसे हाँ कह दी थी इसलिए मै मना नहीं कर सका। अगर तुम्हें ठीक नहीं लग रहा है तो मना कर देते हैं।”
सुनन्दा का चेहरा और सख्त हो गया और उसने तल्ख आवाज़ में कहा, “कौन है, कैसी है, तुम्हें कुछ नहीं मालूम और तुमने हाँ कह दी - और अब यह कह रहे हो कि मना कर देते हैं - क्या मज़ाक है! तुम तो हाँ करके अच्छे बन गए, अब मना करने के लिए तुम मेरा नाम ले दोगे। बहुत आसान हो जाएगा तुम्हारा काम। कोई बात नहीं, आने दो उसे भी - छुट्टियाँ तो खराब होंगी ही, उसके दोस्तों के सामने अपने घर का तमाशा भी बनेगा।”
रमन ने अपने भीतर उठते गुस्से पर किसी तरह काबू पा लिया। उसकी पूरी कोशिश थी कि इवा के आने से पहले घर में कोई कलह नहीं होनी चाहिए- बस चुपचाप नाश्ता करता रहा।
सुनन्दा ने पानी का गिलास उठा लिया। उसका चेहरा तमतमा रहा था और साँस की गति तेज़ हो गई थी। कुछ देर बाद सुनन्दा फिर बोली, “तुम अपनी यह चालाकियाँ कब छोड़ोगे?”
रमन ने गुस्से से अपनी प्लेट दूर खिसका दी और उठ कर खड़ा हो गया। जब रमन इस तरह उठने लगा तो सुनन्दा का गुस्सा एकदम झाग के समान बैठ गया। बात इस तरह हाथ से निकल जाने से उसके हाथ-पाँव फूल गए। वह कुछ मनुहार और कुछ अधिकार से बोली, “अरे यह क्या बात हुई? कहाँ जा रहे हो? बैठो और ठीक तरह से नाश्ता करो।”
रमन कुछ नहीं बोला और अपना कोट पहनने लगा। उसने जब सुलह का कोई भाव नहीं दर्शाया तो सुनन्दा ने एक बार फिर कोशिश की, “सॉरी!”
“बस हो गया”, रमन ने भर्राए-से स्वर में उत्तर दिया और तेज़ी से बाहर निकल गया।
ऑफिस में आते ही गीता वाला वाकया हो गया और सारा दिन तनाव और बेचैनी में गुज़र गया। दोपहर तक भूख के मारे बुरा हाल था पर रमन खाना खाने घर नहीं गया। करीब पौने तीन बजे सुनन्दा का फोन आया था पर रमन ने खाना खाने के लिए घर आने से मना कर दिया।
*****
इवा लगभग छह महीने के बाद घर आ रही है। पिछली बार दीवाली की छुट्टियों में घर आई थी तो उसकी तबीयत बिगड़ गई थी और बुखार में ही वह वापस गई थी। इवा की बीमारी के चलते घर में दीवाली का सेलिब्रेशन भी फीका रहा। सुनन्दा उसे छोड़ने चंडीगढ़ गई थी और तीन दिन उसे वहीं रुकना पड़ा।
इस बार इवा के आने का रमन और सुनन्दा बहुत बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं। उसके आने से पहले ही रमन ने इन छुट्टियों की पूरी रूपरेखा बना रखी है। यह भी पक्का सोच रखा है कि इवा की छुट्टियों के दौरान घर का माहौल ठीक रखने की कोशिश करेगा।
इवा के स्कूल में बच्चों को मोबाइल रखने की सख्त मनाही थी। सभी बच्चे स्कूल में लगे पीसीओ से अपने घर बात कर सकते थे जोकि शाम पाँच बजे से रात दस बजे तक खुलता था। इसके अतिरिक्त कोई इमरजेंसी होने पर रजिस्टर में एंट्री करके स्कूल के फोन से भी बात कर सकते थे।
अब तक कोई पचास बार उसने अपने फोन पर इवा के स्कूल से आई किसी कॉल को ढूँढने की कोशिश की किन्तु ऐसी कोई कॉल न देख कर उसका मन और उदास होता गया।
तीन बजे स्कूल से फोन आ गया। इवा ही थी फोन पर - बहुत जल्दी में उसने बताया, “पापा अभी गाड़ी भेज दो, कल आना है।”
रमन ने पूछा, “तुम्हारी दोस्त साथ आ रही है?
“हाँ हाँ, आ रही है, आ कर बताऊँगी।” इवा ने जल्दी से फोन रख दिया।
रमन को एकाएक बहुत हल्का महसूस हुआ, जैसे सीने से कोई भारी पत्थर हट गया हो। अब वह कल आसानी से मुंबई जा सकता है। सुबह से तनाव के कारण खिंची हुई नसें कुछ ढीली पड़ती महसूस हुईं। उसने तभी जोशी जी को बुला लिया।
“जी सर”, जोशी जी ने आकर पूछा।
“जोशी जी, इवा का फोन आ गया है - अभी चंडीगढ़ जाना है। आपकी तैयारी है? खाना खा लिया है? अमर सिंह यहीं है ना?” रमन के स्वर में उतावली थी।
“जी सर, बिल्कुल तैयारी है। मैं तो सुबह ही अपना सामान ले आया था। अमर सिंह को सुबह से ही कह रखा है। वह तो कई बार पूछ चुका है कि कब चलना है। हमने खाना खा लिया है। बस अभी पंद्रह मिनट में निकल जाएंगे।” जोशी जी ने आश्वस्त किया।
रमन ने फिर कहा, “कोशिश कीजिएगा कि कल सुबह जल्दी वहाँ से चल सको – बारिश का मौसम है – वक़्त पर यहाँ पहुँच जाएँ तो अच्छा है। इवा की एक दोस्त भी उसके साथ आ रही है। मुझे भी उसने कल ही बताया। आप देख लीजिएगा कौन है। बड़ी गाड़ी ले कर जा रहे हैं न? सामान शायद कुछ ज़्यादा हो।”
जोशी जी ने उत्तर दिया, “जी मैं देख लूँगा, आप निश्चिंत रहिए। गाड़ी बड़ी ही जा रही है।”
“और गीता को छुट्टी के बारे में बोल दिया है आपने?”
“जी, मैंने उसी वक़्त कह दिया था। कहती है कि एक-दो दिन छुट्टी पर रहेगी। हॉस्पिटल में डॉक्टर सोलंकी की निगरानी में है उसका बेटा। मैंने डॉक्टर साहब को भी फोन किया था। शायद दो-तीन दिन और हॉस्पिटल में रहना पड़ेगा। उन्होंने बताया है कि खतरे की कोई बात नहीं है। बाकी कल वापिस आ कर मैं खुद हॉस्पिटल जाऊँगा।”
“थैंक्स जोशी जी। डॉक्टर सोलंकी का नंबर मुझे दे दीजिए, मैं भी शाम को उनसे बात कर लूँगा।” रमन की आवाज़ में कृतज्ञता का भाव था।
जोशी जी ने अपने फोन से देख कर रमन को डॉक्टर का नंबर दे दिया।
“शाम को चंडीगढ़ पहुँच कर फोन कर देना। रात ज़ीरकपुर ही रुकेंगे?”
“जी सर। बहन भी कई दिन से उदास है, मिल कर खुश हो जाएगी।”
जैसे ही जोशी जी रवाना हुए, रमन ने सुनन्दा को फोन करके बता दिया कि इवा कल दोपहर तक पहुँच जाएगी, जोशी जी अभी निकल रहे हैं।
सुनन्दा ने पलट कर कहा, “मैं तो सुबह से उसके फोन का इंतज़ार कर रही हूँ, उसका फोन ही नहीं आया।”
“हाँ, उसने स्कूल के ऑफिस से फोन किया था। सिर्फ एक मिनट के लिए उसने जल्दी में बात की थी, शायद और भी बच्चों ने अपने घर बात करनी होगी। अभी कुछ मिनट पहले ही फोन आया है। शायद तुम्हारा नंबर न लगा हो।” रमन सोच रहा था कि अब अगर खाने के लिए कहेगी तो घर चला जाऊंगा पर सुनन्दा ने खाने के बारे में कोई बात ही नहीं की और बिना कोई बात और किए फोन काट दिया।
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उत्तर-पश्चिमी भारत में टी-कैपिटल के नाम से प्रसिद्ध पालमपुर शहर में चाय का कारोबार करने वालों में रमन की कंपनी, ‘फ्रैगरेंस ग्रीन्स’ का अपना एक विशेष स्थान है। कुल नौ कर्मचारी हैं ऑफिस में, इसके अतिरिक्त फैक्ट्री में बाईस लोग मिक्सिंग, पैकिंग और लोडिंग इत्यादि का काम करते हैं - पालमपुर की प्रसिद्ध चाय-पत्ती की पैकिंग और एक्सपोर्ट का काम है। पिछले पंद्रह साल में रमन ने बहुत मेहनत करके अपना ब्रांड चमकाया है। कई प्रकार की हरी, काली और हर्बल चाय यहाँ ब्लेंड और पैक होती है - अच्छी क्वालिटी के कारण इसकी देश-विदेश में बहुत माँग रहती है। रमन की फैक्ट्री और ऑफिस का सारा काम घना नन्द जोशी देखते है।
अपने काम को पूजा मानने वाले रमन पर उत्तम किस्म की चाय बनाने का जुनून सवार रहता है। उसे अपने काम से बहुत प्यार है – क्वालिटी के साथ वह कोई समझौता नहीं करता। अच्छे बागानों से चुनिन्दा चाय पत्ती के साथ अदरक, लौंग, इलायची, तुलसी, दालचीनी, बनफशा, अर्जुन- छाल, लैमन ग्रास, मिंट और दूसरी पहाड़ी जड़ी-बूटियों के मिश्रण से वह कई प्रयोग करता रहता है पर उसका सिग्नेचर ब्रांड ‘तुलसी ग्रीन’ ही है। जब उसने कारोबार शुरू किया था तो चाय के सैंपल प्रोफेशनल टी-टेस्टर्स को भेजा करता था ताकि उसके स्वाद और गुणवत्ता की जाँच की जा सके। बाद में उसने दार्जिलिंग के राष्ट्रीय संस्थान से टी-टेस्टिंग का कोर्स कर लिया और यह काम भी वह खुद ही करने लगा।
जोशी जी करीब साढ़े तीन बजे चण्डीगढ़ के लिए निकल गए। रास्ते भर वह आज की गीता वाली घटना के बारे में सोचते रहे और जो कुछ हुआ उसे लेकर कुछ परेशान भी थे। यह ठीक है कि गीता के न आने से देर हो रही थी किन्तु यह कोई बहुत बड़ी चिंता का विषय नहीं था।
रमन का ऐसा व्यवहार उनकी समझ से बाहर था। इतना तो उन्होंने भाँप लिया था कि रमन घर से आते समय सहज नहीं था। एक संभावना तो यह थी कि इवा के घर आने के बारे में अनिश्चितता और विलंब की बात रमन को परेशान कर रही थी - इसके अतिरिक्त सुनन्दा और रमन के आपसी सम्बन्धों की कड़वाहट का असर भी हो सकता था। जोशी जी को उनके सम्बन्धों के विषय में कुछ हद तक जानकारी है किन्तु रमन ने इस विषय पर कभी बात नहीं की थी।
सुनन्दा जब भी कभी बहुत परेशान हो जाती तो उनसे बात कर लेती थी, जवाब में जोशी जी हमेशा रमन की खूबियाँ गिनाते हुए, घर की छोटी-छोटी बातें आपस में ही सुलझा लेने की सलाह दिया करते थे। जोशी जी कहते, “बेटा, बंद हो मुट्ठी तो लाख की और खुल गई तो फिर खाक की। एक-दूसरे को समझो और यह मान कर चलो कि निभाने में खुशी भी है और समझदारी भी।”
जोशी जी सुनन्दा को अपनी बेटी जैसा मानते हैं और सुनन्दा भी हमेशा उनसे बहुत सम्मान और प्यार से बात करती है। जोशी जी की पत्नी और उनके बेटे से भी सुनन्दा का बहुत आत्मीय संबंध है। विकास की पढ़ाई-लिखाई, आईआईटी में दाखिला, उसका विदेश जाना और शादी इत्यादि अधिकतर फैसलों में सुनन्दा का दखल रहा था। जोशी जी हर दूसरे-तीसरे दिन एक चक्कर सुनन्दा के घर का ज़रूर लगाते हैं - सुनन्दा को किसी चीज़ की ज़रूरत हो, तुरंत हाज़िर कर देते।
रमन और सुनन्दा के सम्बन्धों में एक विशेष बात यह है कि जितनी देर तक जोशी जी उनके घर में रहते हैं, घर का माहौल सहज रहता है। उनके सामने कभी किसी बात पर कहा-सुनी नहीं हुई। जब कभी शाम को जोशी जी किसी काम के लिए उनके घर आते तो सुनन्दा उन्हें चाय के लिए ज़रूर रोक लेती है। मोटी इलायची की तेज़ मीठे वाली चाय के साथ आलू, प्याज़ और हरी मिर्च के पकौड़े जोशी जी को बहुत पसंद हैं। मिर्च के पकौड़े खाते-खाते जोशी जी सी-सी करते जाते और अपने कमेंट्स की फुलझड़िया छोडते रहते, “अरे वाह, क्या नवरंगी, सतरंगी पकौड़े हैं।”
जब जोशी जी जाने लगते तो सुनन्दा बोल उठती, “अरे रुकिए तो ज़रा, आंटी के लिए अभी गरम पकौड़े निकालने हैं, लेकर जाइए।”
जोशी जी बहुत ज़ोर से हँस कर कहते, “बेटा चाय भी पैक कर देना और सारा कुछ बिल में जोड़ देना।”
सुनन्दा भी हंसते हुए उत्तर देती, “ठीक है जी, सब कुछ का हिसाब रखूंगी पर एक शर्त है, आपको रोज़ शाम को आना पड़ेगा।”
जोशी जी ठहाका लगा कर कहते, “ऐसा लालच मत दो बेटा, मैं तो ठहरा फक्कड़, यहीं पड़ा रहूँगा - और आंटी तुम्हारी मुझे जंगल-जंगल ढूंढती फिरेगी।”
सुनन्दा कई बार उन्हें यह बता चुकी थी, “आप जब भी आते हैं, हमारे घर का माहौल बिल्कुल बदल जाता है। रमन सिर्फ उसी वक़्त हँसते हैं जब आप यहाँ होते है - या फिर जब इवा घर आती है। सच में रमन को ऐसे हँसते देख कर बहुत अच्छा लगता है।”
जोशी जी भी इस बात को बखूबी समझते हैं इसलिए कई बार शाम को बिना किसी काम के भी घर का चक्कर लगा लिया करते। जोशी जी की एक और विशेषता थी - जब वे अपने ऑफिस में नहीं होते तो उनका स्वभाव बहुत विनोदी और खुला होता है। अपने बच्चों से दूर रहने की टीस जोशी जी के मन में हमेशा किसी कांटे की तरह चुभती है। शायद यही वजह है कि वे यह खुशी दूसरों के बच्चों में तलाश करते रहते हैं।
जोशी जी के पिता बहुत समय से पालमपुर में रमन के पिता का पुश्तैनी कारोबार देखते थे। वैसे तो रमन के पिता सेठ बिशम्बर दास पठानिया का काम कलकत्ता में ही है पर उनकी काफी प्रॉपर्टी पालमपुर में है जिसमें से बहुत बड़ा भाग उन्होंने लीज़ पर दे रखा है। इसके अतिरिक्त फलों के बागों से पैदावार का व्यापार भी है। अपने पिता के बाद जोशी जी ने भी अपनी सारी उम्र इसी परिवार की सेवा में लगा दी और सेठ जी ने भी उन्हें कभी नौकर नहीं समझा।
रमन के पालमपुर के कारोबार को जमाने और संभालने में जोशी जी का बहुत बड़ा हाथ है। चाय की हर किस्म की गहरी समझ रखते हैं और एक कुशल प्रशासक भी हैं। रमन उनका अपने पिता के समान आदर करता है और वे भी रमन और उसके परिवार से बहुत स्नेह रखते हैं।
जोशी जी का एक ही बेटा है विकास - शुरू से ही कुशाग्र-बुद्धि और मेहनती। जब उसका आईआईटी दिल्ली में दाखिला हुआ तो छोटे-से शहर पालमपुर में धूम मच गई थी। जोशी जी सब की बधाइयाँ स्वीकार करते-करते जैसे खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। दिल्ली से पढ़ाई पूरी करते ही एक अमेरिकी सॉफ्टवेयर कंपनी में उसका प्लेसमेंट हो गया था, बहुत अच्छा पैकेज़ मिल रहा है। पिछले बारह साल से अमेरिका में है। उसका एक बेटा भी है, करीब सात साल का।
पाँच साल पहले बेटा-बहू अपने दो साल के बेटे को लेकर पालमपुर के पास अपने पुश्तैनी गाँव में आए थे। छोटे बच्चे आदित्य को तब तेज़ बुखार के साथ उल्टियाँ शुरू हो गईं। एक-दो दिन तक तो उन्होंने गाँव में ही इलाज करवाया किन्तु जब कोई ज़्यादा सुधार नहीं हुआ तो उसे पालमपुर के हॉस्पिटल में भर्ती करवाना पड़ा। लेकिन तब तक उसे पीलिया हो चुका था। बच्चे की हालत देख कर डॉक्टर ने कहा कि उसे चंडीगढ़ शिफ्ट करना पड़ेगा। उसी रात रमन ने अपनी गाड़ी में उन्हें चंडीगढ़ भेज दिया। विकास, स्नेहा और जोशी जी उसे चंडीगढ़ लेकर गए थे - सुनन्दा भी साथ गई थी और दो दिन तक वहीं रही थी। स्नेहा के पिता के चंडीगढ़ पहुँचने के बाद ही वह पालमपुर वापिस आई थी। करीब एक हफ्ता उन लोगों को वहाँ रहना पड़ा था, तब जाकर आदित्य कुछ ठीक हुआ। फिर स्नेहा के पिता उन्हें दिल्ली ले गए।
स्नेहा के मन में यह बात घर कर गई कि पालमपुर में उचित चिकित्सा व्यवस्था नहीं है। उसके बाद से वे लोग गाँव नहीं आए। करीब तीन साल पहले दिल्ली आए थे किन्तु पालमपुर नहीं आए। विकास ने कई बार कोशिश की कि बच्चे को लेकर पालमपुर हो आएं किन्तु स्नेहा और उसके पिता नहीं माने। छुट्टियों में वे लोग स्नेहा के मायके दिल्ली में ही रुके थे - उनके परिवार में कोई शादी थी। स्नेहा के पिता ने बहुत कहा कि जोशी जी अपनी पत्नी के साथ छुट्टियों में उनके साथ दिल्ली ही रहें। जोशी जी और उनकी पत्नी दिल्ली गए भी किन्तु बहू के मायके में उनका ज़्यादा दिल नहीं लगा। तीन दिन दिल्ली रुकने के बाद वे वापिस आ गए थे।
आदित्य की बीमारी और उस समय उसे उचित चिकित्सा न उपलब्ध करवा पाने के कारण जोशी जी काफी समय तक अपराध बोध से ग्रसित रहे। इस पर जब स्नेहा ने यह कह दिया कि अब वह कभी गाँव नहीं आएगी तो जोशी जी ने पालमपुर शहर में मकान बनाने का निर्णय कर लिया ताकि जब कभी उनका बेटा-बहू घर आएं तो उन्हें उचित सुविधाएं मिल सकें। उनकी जितनी जमा पूंजी थी, सब उस मकान को बनाने में लगा दी। विकास ने बहुत मना किया कि इतना पैसा खर्च न करके सिर्फ अपने पैतृक घर में आवश्यक सुधार कर लें, किन्तु जोशी जी पर तो अब यह धुन सवार थी कि उनके पोते को जिन सुविधाओं की आदत है, वे सब नए घर में उपलब्ध करवाएँगे। विकास ने इसके लिए पैसे भिजवाने की बात की तो उन्होंने मना कर दिया, “बेटा पैसे बहुत हैं, ठीक-ठाक सा घर बन जाएगा।”
रमन ने भी सुझाया, “जोशी जी जब इस मकान पर इतना पैसा खर्च कर रहे हो तो पुराने मकान को बेच दो।” किन्तु जोशी जी का कहना था, “सर, माँ-बाप की निशानी को बेचने की नालायकी नहीं करूँगा। नया मकान बच्चों की ज़रूरत के हिसाब से बनवा रहा हूँ - यह मेरा फर्ज़ है, बाकी उनकी इच्छा।”
विकास ने ज़िद्द करके उनके खाते में पैसे भिजवा दिए किन्तु जोशी जी ने उसमें से कुछ खर्च नहीं किया। सारी रकम का बैंक में फिक्स डिपॉज़िट करवा दिया और आदित्य को नामिनी रखवा दिया। उनकी पत्नी ने बहुत समझाया, “बेटा अच्छी तनख्वाह पा रहा है, उसने जब पैसे भेज ही दिए हैं तो खर्च कर लो। यह मकान जो बनवा रहे हो, विकास का ही है और जो पैसे बैंक में जमा करवा दिए हैं, वह भी उसके ही हैं, तो खर्च करने में परहेज क्यों?”
जोशी जी को पत्नी की बात ठीक तो लगती थी पर उनका मन नहीं माना।
वैसे तो जोशी जी जैसे समझदार और सेवा-भाव वाले व्यक्ति के गाँव छोड़ कर शहर में बड़ी कोठी बनाने के फैसले से सभी गाँव वाले कुछ उदास थे किन्तु उनके पुराने दोस्त लाला चिरंजी लाल स्वयं को बहुत अकेला महसूस करने लगे। जोशी जी उन्हें समझाते, “इतना दिल को क्यों लगाते हो? और मैं कौनसा अभी जा रहा हूँ। अभी तो बनवाना शुरू किया है, वक़्त लगेगा।”
अपना गाँव और अपना घर छोड़ने के खयाल से जोशी जी भी कुछ उदास हो जाते और फिर ज़ोर से हँस पड़ते, “अरे लाला, एक दिन तो दुनिया ही छोड़ कर जाना है। किसी भी चीज़ का ज़्यादा मोह न किया करो। तुम्हें तो अभी स्वयं भगवान भी आ कर कहें कि चलो स्वर्ग में तुम्हारी सीट पक्की है तो तुम कहोगे कि थोड़ी मोहलत और दे दो, मैं दुकान छोड़ कर नहीं जा सकता।”
दोनों खिलखिला कर हँस देते। चिरंजी लाला फिर से चुहुल करते, “अरे तुम सठिया गए हो, इस उम्र में गाँव छोड़ कर शहर में बंगला बनवा रहे हो, कुछ अक्ल से काम लो। विलायत में अपने बेटे के पास जा कर रहो - वहाँ कोट-पैंट पहन कर बाबू बन जाना, कोई मेम तुमसे शादी कर लेगी।”
जोशी जी पलट कर जवाब देते, “मैं तुम्हारे लिए विलायत जैसी कोठी यहीं बनवा दूँगा, मेम अपने लिए खुद ढूँढ लेना।”
लेकिन जब चिरंजी लाला वास्तव में बहुत उदास हो जाते तो जोशी जी उन्हें समझाते, “देखो मैं कोई हमेशा शहर में थोड़े ही रहने वाला हूँ, आते-जाते रहेंगे। इस घर की चाबी तुम्हारे पास रहेगी। सफाई रोज़ करवा दिया करना। ऊपर वाले दोनों कमरे खुले रखना। गाँव में किसी के यहाँ शादी-ब्याह हो तो ज़रूरत को देख कर उन्हें दे देना।”
नया घर जोशी जी ने बहुत चाव से बनवाया और उसे आधुनिकतम सुविधाओं से सुसज्जित भी किया। उन्हें उम्मीद थी कि शहर में अच्छा घर बन जाने से उनका बेटा-बहू आएंगे किन्तु उन्होंने जब नए मकान में कोई रुचि नहीं दिखाई और न ही पालमपुर आने का कोई संकेत दिया तो जोशी जी का मन बुझ-सा गया। कुछ महीने तो जोशी जी हर रोज़ सुबह जाकर उसकी सफाई वगैरह करवाते रहे पर जैसे-जैसे वक़्त बीतता गया, उस घर में जाते ही उनका मन उदास हो जाता इसलिए उन्होंने वहाँ जाना ही छोड़ दिया। एक बड़ा-सा ताला सुनसान पड़े घर की रखवाली करता और बाहर बरामदे में बारिश और धूल से दीवारों का रंग मटमैला पड़ने लगा। जोशी जी से जब कोई पूछता कि बेटा कब आ रहा है तो उन्हें लगता कि उनकी दुखती रग पर किसी ने हाथ रख दिया है। वे खीझ जाते - इसलिए लोगों ने पूछना भी बंद कर दिया।
*****
जैसे ही जोशी जी अपनी बहन के घर ज़ीरकपुर पहुँचे, उन्होंने रमन को फोन लगाया, ”सर ज़ीरकपुर पहुँच गए हैं। सुबह स्कूल जाकर फिर से फोन करूंगा।”
रमन ने बताया, “जोशी जी, मैं और अंगद अभी हॉस्पिटल से आ रहे हैं। बच्चा अब पहले से बेहतर है। डॉक्टर सोलंकी से भी हम मिल लिए हैं। चिंता की कोई बात नहीं है।” रमन का स्वर ऐसा था मानो वह जोशी जी को आश्वस्त करते हुए उनसे क्षमा भी माँग रहा हो।
4
इवा और मन्नत की दोस्ती करीब दो महीने पुरानी है। होली वाले दिन जब दोनों की जान-पहचान हुई थी तो इवा को सपने में भी ये गुमान नहीं था कि ये लड़की उसकी ज़िंदगी में इतना बड़ा बदलाव ले आएगी।
हुआ ये कि हॉस्टल में वार्डन ने दो घंटे के लिए होली खेलने की इजाज़त दी थी लेकिन यह कंडीशन लगाई थी कि ज़बर्दस्ती किसी पर रंग नहीं डाला जाएगा।
दिन चढ़ते ही हॉस्टल में उत्सव का सा माहौल था और नाश्ते के तुरंत बाद ही कंपाउंड में लड़कियों का जमावड़ा शुरू हो गया और फिर रंगों की बौछारों में सब रंग गए।
तेज़ म्यूज़िक बज रहा था और सब लड़कियाँ पानी में भीगी नाच रही थीं। मन्नत कुछ दूरी पर एक जीने की बीच वाली सीढ़ी पर बैठी थी। उसने रेलिंग से पैर बाहर निकाल कर नीचे लटका रखे थे और वहीं बैठी-बैठी म्यूज़िक की ताल पर हाथ-पैर मटकाते हुए डांस कर रही थी।
उस दिन इवा की तबीयत खराब थी इसलिए वह होली खेलने बाहर नहीं आई। अब बुखार कुछ कम था पर कमज़ोरी बहुत थी। अचानक किसी लड़की ने आकर शोर मचा दिया कि इवा बाहर नहीं आई है। कुछ लड़कियाँ भाग कर उस के कमरे में गईं और उसे खींचती हुई बाहर ले आईं।
जैसे ही वे लड़कियाँ इवा को खींचती हुई झुंड के बीच पहुँचीं, एक लड़की ने पीछे से आकर ठंडे पानी की बाल्टी उसके सर पर उलट दी। इवा एकदम घबरा गई - उसके नाक और मुँह में पानी चला गया और खाँसते-खाँसते उसकी साँस उखड़ने लगी। उसकी हालत से बेखबर सब लड़कियाँ उसके हाथ ऊपर उठा कर उसे नचाने की कोशिश करने लगीं जबकि वह निढाल हो कर नीचे गिर रही थी।
मन्नत कुछ ऊँचाई पर बैठी थी। वह इवा को जानती तो नहीं थी पर उसने दूर से देख कर समझ लिया कि लड़की की हालत खराब हो रही थी। उसने वहीं से चिल्ला कर उसे संभालने के लिए कहा पर तेज़ म्यूज़िक में किसी ने उसकी आवाज़ नहीं सुनी। मन्नत पलक झपकते ही उसी ऊंचाई से रेलिंग के ऊपर से छलांग लगा कर नीचे कूद गई।
तेज़ म्यूजिक में नाचती हुई लड़कियों के झुरमुट के कारण वह इवा तक नहीं पहुँच सकी और लड़कियों के बीच घिरी हुई इवा उसे दिखाई भी देना बंद हो गई। मन्नत को कुछ नहीं सूझा तो उसने म्यूज़िक सिस्टम को ज़ोर से लात मार दी। स्पीकर गिरने से संगीत रुक गया - लड़कियों का डांस बंद हो गया और शोर थम गया। सबको पीछे धकेलते हुए मन्नत जब इवा तक पहुँची, तब तक इवा खाँसते-खाँसते ज़मीन पर गिर गई थी। मन्नत ने झटके से इवा को कंधे पर उठाया और बाहर की ओर भागी। बहुत-सी लड़कियाँ उसके पीछे बाहर की ओर लपकीं।
स्कूल का मेन गेट हमेशा बंद रहता था और सिर्फ छोटा गेट खुला रहता था जिसमें से चौकीदार कड़ी पूछताछ के बाद ही किसी को अंदर या बाहर जाने देते थे। भागती हुई मन्नत ने दूर से ही चौकीदार को गेट खोलने के लिए कहा। चौकीदार सब कुछ देख रहा था – उसने छोटा गेट खोल दिया और मन्नत तेज़ी से बाहर भागी। गेट के सामने ही ऑटो रिक्शा स्टेंड था। वहाँ कुछ ऑटो खड़े थे और सभी ड्राइवर इकट्ठे बैठे थे। उसने तेज़ी से इवा को एक रिक्शा की पिछली सीट पर फेंका और बोली, “नर्सिंग होम चलो।”
कुछ ही दूरी पर बड़ा चौराहा था जहाँ डॉक्टर दीवान का नर्सिंग होम था। डॉक्टर दीवान के साथ स्कूल का एग्रीमेंट था – वहाँ से एक डॉक्टर हर रोज़ हॉस्टल में आया करते थे और किसी की तबीयत ज़्यादा खराब हो जाने पर उसे वहाँ भर्ती कराया जाता था। मन्नत के पीछे-पीछे 8-10 लड़कियाँ और वहाँ पहुँच गईं। इवा की साँस बुरी तरह उखड़ी हुई थी, और रंग नीला पड़ता जा रहा था। उसे इस हालत मेँ देख कर सब के होश उड़ गए। नर्सिंग होम की एमर्जेंसी में मौजूद ड्यूटी डॉक्टर ने तुरंत उसका इलाज शुरू कर दिया। कुछ देर में इवा की तबीयत संभल गई।
इतने में वार्डन भी बदहवासी में भागती हुई वहाँ पहुँच गई और गुस्से से बोली, “मेरी परमिशन के बिना किसी को बाहर कैसे ले कर जा सकती हो?”
“अगर मैं आपकी इंतज़ार करती तो शायद यह बचती नहीं। और बाय द वे मैं’म आप कहाँ थीं जब वहाँ यह सब कुछ हो रहा था? आप का काम मुझे करना पड़ा। पहले आप डॉक्टर से बात करके अपनी पेशेंट के बारे में पता कर लो, फिर आप मुझसे बात करना – यह लड़की मरते-मरते बची है।” मन्नत की आवाज़ में तल्खी थी।
मन्नत के तेवर देखकर वार्डन घबरा गई और सफाई देने लगी, “मैं अपने कमरे में ही थी, जैसे ही पता चला मैं आ गई।”
मन्नत का गुस्सा अभी शांत नहीं हुआ था, “ठीक है मैं खुद कल प्रिन्सिपल मै’म से बात करूंगी। अगर मैंने गलती की है तो मैं सज़ा भुगतने के लिए तैयार हूँ और यदि आपने होली खेलने की परमिशन दी है तो यह देखना भी आपका ही काम है कि किसी के साथ ज़्यादती न हो। यह बीमार पड़ी लड़की किसके पास जाए अपनी शिकायत लेकर? कमज़ोर होने का मतलब यह तो नहीं कि हम लावारिस हैं। इसके पेरेंट्स आकर अपने आप बात कर लेंगे – मैंने जो ठीक समझा, कर दिया।”
वार्डन को कोई जवाब नहीं सूझा तो बोली, “मैं ड्यूटी-डॉक्टर से बात करके आती हूँ।”
मन्नत फिर से इवा के पास बैठ गई। बाकी लड़कियों को वार्डन ने वापिस जाने के लिए कह दिया था।
हॉस्पिटल की पलंग पर लेटे हुए इवा ने मन्नत से कहा, “थैंक्स फॉर हैल्पिंग मी - मैं अब ठीक हूँ। आप वार्डन को मेरी तरफ से रिक्वेस्ट कर देना कि मेरे घर में इसका पता नहीं लगना चाहिए और आप भी प्लीज़ बात को बढ़ाना मत।”
मन्नत को कुछ अजीब सा लगा, “क्यों नहीं बताना है? तू मरते–मरते बची है - उन लड़कियों पर एक्शन तो होगा ही। तेरे घर में भी उनको बताना पड़ेगा, नहीं तो कल को तेरे पापा ही कहेंगे कि इतनी बड़ी बात हो गई और उन्हें बताया तक नहीं गया।”
इवा के बुझे हुए चेहरे पर गहरी उदासी छा गई और आँखों की कोरें गीली हो गईं, “मेरे घर में अगर पता चला तो दोनों आज ही यहाँ आ जाएंगे और मुझे लेकर फिर से एक ब्लेम-गेम शुरू हो जाएगा। एक-दूसरे की गलती निकालने की वही पुरानी आदत – एक दूसरे को टार्गेट करना, वही रोना-धोना और सब पुरानी बातों का रेपिटीशन – आय एम जस्ट सिक ऑफ आल दिस नॉनसेंस। वे दोनों तो अपनी ड्यूटी पूरी करके अपने नंबर बनाएँगे और चले जाएंगे पर मुझे बहुत मुश्किल होती है फिर से नॉर्मल होने में – मर जाती तो शायद इस सब से पीछा छूट जाता।”
“चल छोड़ इन बातों को, तेरी तबीयत ठीक नहीं है। अभी तो बुखार भी है, अभी रैस्ट कर – फिर बात करेंगे। और यह आप-आप करना छोड़ – मन्नत नाम है मेरा।”
“आपको तो स्कूल में सब जानते हैं, मैं इवा हूँ – नाइन्थ में हूँ।”
मन्नत पूरा दिन इवा के साथ नर्सिंग होम में ही रही। शाम को वार्डन दोबारा आई तो उसे डिस्चार्ज करवा कर हॉस्टल ले गई।
दो दिन में इवा काफी ठीक हो गई। हर रोज़ शाम को मन्नत उसे अपने कमरे में ले जाती और उसके मम्मा-पापा के बारे में पूछती रहती। पहले तो इवा कुछ झिझकती रही पर धीरे-धीरे अपने बारे में सब कुछ बताती गई। सुनते-सुनते मन्नत अपने आप में गुम होकर अपने बचपन की कड़वी यादों में खो जाती।
अगले कुछ दिनों में इवा ने मन्नत को जब अपने बारे में सब कुछ बताया तो उसे लगा कि दोनों एक जैसे दर्द से गुज़र रही हैं - यहीं से दोनों की दोस्ती की शुरुआत हुई थी। अगले कुछ दिनों में यह हाल हो गया कि इवा को जब भी मौका मिलता, भाग कर मन्नत के कमरे में पहुँच जाती। मैस मेँ वे दोनों एक-दूसरे का इंतज़ार करके ही खाना शुरू करतीं और शाम को घंटों बातें करती रहती।
*****
अगले हफ्ते स्कूल में सालाना छुट्टियाँ शुरू होने वाली थी। शाम के धुंधलके में इवा और मन्नत हॉस्टल के लॉंन में बैठी थीं। शाम काफी गहरा चुकी थी किन्तु दोनों की बातें खत्म होने में नहीं आ रही थीं। मन्नत एक लैम्प-पोस्ट के पोल के साथ पीठ टिकाए बैठी थी और इवा अलसाई हुई-सी लेटी थी। वॉलीबॉल ग्राउंड से आ रहा लड़कियों का शोर अब थम चुका था। लैंप-पोस्ट्स की मद्धम रोशनी में खामोशी को चीरती हुई सिर्फ झींगुरों की आवाज़ें आ रही थीं।
मन्नत दो-तीन बार कह चुकी थी कि चल कर खाना खा लेते हैं पर इवा उसे उठने ही नहीं दे रही थी, “अरे बैठ न कुछ देर - अभी भूख नहीं है। देख कितनी अच्छी हवा चल रही है, ऐसे लग रहा है जैसे पालमपुर में ही बैठी हूँ। कुछ दिन में छुट्टियाँ हो जाएंगी तो तेरी शक्ल देखने को भी तरस जाऊँगी।”
“कब जा रही है घर?” मन्नत ने पूछ लिया।
“जिस दिन छुट्टियाँ शुरू होंगी, पापा गाड़ी भेज देंगे पर इस बार घर जाने का कुछ मन नहीं है।”
“क्यों क्या हुआ? मम्मा-पापा से गुस्सा है?”
“नहीं। गुस्सा क्या करना है – बस ऐसे ही, इस बार घर जाने का मन नहीं कर रहा है। पर जाना तो पड़ेगा ही - हँस कर जाओ या रो कर जाओ। तू अपनी बता - कब जा रही है?”
“मैं कहाँ जाऊँगी?” मन्नत ने उदास-सी आवाज़ में कहा तो इवा ने मन्नत के चेहरे पर कुछ पढ़ने की कोशिश की।
“अपने घर। और कहाँ? पर तूने आज तक अपने घर के बारे मे कुछ बताया नहीं। तू छुपाती क्यों है?” कहते-कहते इवा उठ कर बैठ गई और मन्नत के चेहरे पर नज़र गड़ा दीं।
“छुपाने वाली नहीं हैं तो बताने वाली भी कोई बात नहीं है। प्लीज़ इस टॉपिक को मत शुरू कर, कोई और बात करते हैं।” मन्नत ने बात काट दी।
मन्नत के चेहरे पर कुछ सख्त भाव देखकर इवा खामोश हो गई तो मन्नत की आवाज़ कुछ नर्म पड़ गई, “मैं छुट्टियों में यहीं रहूँगी – इस बीच पाँच हफ्ते के लिए कोच्चि जाऊँगी – बॉक्सिंग कैम्प के लिए। पर तुझे क्या परेशानी है? घर जाने का मन क्यों नहीं है तेरा?”
“नहीं, परेशानी तो कोई नहीं। हर साल जाती ही हूँ, अब तो आदत पड़ गई है - एक क़ैद से निकलो और दूसरी में चले जाओ। यहाँ मन नहीं लगता और घर मेँ अलग किस्म की परेशानियाँ हैं। पर जब से तू मिली है, सब कुछ बदल गया है यहाँ बहुत अच्छा लगने लगा है। अब घर जाने के नाम से घबराहट होने लगती है – कई तरह की मुश्किलें हैं वहाँ पर। तू अगर नहीं जा रही है तो मैं भी इस बार घर नहीं जाऊँगी – कल ही वार्डन को यहाँ रुकने की एप्लिकेशन दे देते हैं। सच में अगर इन छुट्टियों में तेरे साथ रहने को मिल जाए तो मुझे और कुछ नहीं चाहिए।” ईवा ने अपना दर्द छिपाने की कोशिश की, लेकिन मन्नत समझ सकती थी कि ईवा किस उथल-पुथल से गुज़र रही है।
मन्नत के चेहरे पर फीकी-सी हँसी आ गई, “बहुत भोली है तू मेरी डॉल – ऐसे नहीं होता। अपने मम्मा-पापा से ऐसे नाराज़ नहीं होते। चल खाना खाते हैं – बहुत भूख लगी है।” मन्नत को जब भी इवा पर बहुत प्यार आता था तो वह उसे डॉल कह कर बुलाती थी।
“अच्छा एक काम कर – कुछ दिन के लिए मेरे साथ पालमपुर चल। कुछ दिन वहाँ रह कर वापिस आ जाना। सच कह रही हूँ ऐसी जगह तूने सारी दुनिया में नहीं देखी होगी,“ इवा ने कहा।
“मैं वहाँ क्या करूंगी? और मैं अगर वहाँ जाऊँगी तो तुम्हारे घर में और झगड़े होंगे – तुम्हारी मम्मा बोलेगी कि यह मुसीबत कहाँ से आ गई।” मन्नत हंस दी।
“अरे हंसने की बात नहीं है, सच कह रही हूँ। मेरे पेरेंट्स इतने समझदार तो हैं -जब घर ने कोई गेस्ट आया होता है तो वे लोग सबको अच्छी तरह से अटेंड करते हैं। तू जितने दिन वहाँ रहेगी, घर में शांति बनी रहेगी” इवा जैसे मन्नत की मिन्नत सी कर रही थी।
“अरे छोड़ बच्चों वाली बातें, मैं भूख से मर रही हूँ और तुझे मज़ाक सूझ रहा है” कहते हुए मन्नत उठी और मेस की ओर बढ़ गई। इवा भी मरे कदमों से उसके पीछे चल दी।
इसके दो दिन के बाद जब मन्नत ने खुद ही छुट्टियों में पालमपुर चलने की बात की तो इवा को जैसे मुँह मांगी मुराद मिल गई।
मन्नत ने पालमपुर जाने के लिए हाँ तो कर दी पर इवा डर भी रही थी कि अगर पापा ने मना कर दिया मन्नत को बहुत बुरा लगेगा। और जब रमन ने हाँ कर दी तो इवा का मन खिल गया। अब तो उसका मन कर रहा था कि उड़ कर पालमपुर पहुँच जाए।
5
पालमपुर जाने से एक दिन पहले की बात है। इवा डिनर के लिए मन्नत को ढूंढ रही थी। उसके रूम में, कॉमन रूम में, जिम में, सब जगह ढूंढ लिया पर मन्नत नहीं मिली। आखिर उसे ढूंढती-ढूंढती वह लाइब्रेरी में पहुँच गई। वहाँ जा कर देखा तो मन्नत अकेली कंप्यूटर के स्क्रीन के सामने बैठी सुबक रही थी। इवा का दिल धक्क से रह गया।
“अरे! क्या हुआ? सब ठीक है?” इवा ने घबरा कर पूछा।
“कुछ नहीं है।” मन्नत की आँखों में आँसू थे पर उसका चेहरा तमतमाया हुआ था।
“प्लीज़ बता न, क्या हुआ? मेरा दिल घबरा रहा है?” इवा के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था।
“अरे मैंने बताया न कुछ नहीं है, तू जा यहाँ से।” मन्नत ने कुछ सख्ती से कहा तो इवा कुछ डर सी गई, पर फिर भी उसने कहा, “चल खाना खाते हैं।”
“अच्छा तू जा, खाना शुरू कर मैं अभी आती हूँ।“ मन्नत की टोन से पता चल रहा था वह उस वक्त अकेले रहना चाहती है।
इवा का मन तो नहीं कर रहा था उसे वहाँ छोड़ने का पर वह बाहर चली गई।
करीब आधे घंटे के बाद मन्नत वहाँ से बाहर निकली तो देखा कि इवा अभी भी लाइब्रेरी के बाहर कॉरिडर में ही बैठी हुई थी।
“तू गई नहीं अभी?” मन्नत अब कुछ नॉर्मल लग रही थी।
“बस तेरी वेट कर रही थी। चलें?’ कहते हुए इवा ने मन्नत के चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश की।
दोनों ने चुपचाप खाया। इवा चाहती थी कि मन्नत कुछ बताए पर उसकी पूछने की हिम्मत नहीं हुई।
जैसे ही दोनों डाइनिंग हॉल से बाहर आई, मन्नत ने कहा, “मैं सोने जा रही हूँ! गुड नाइट।“
“चल थोड़ी देर बैठते हैं।“ कहते हुए इवा ने बाहर लॉन की तरफ इशारा किया।
मन्नत कुछ देर उसकी तरफ देखती रही, जैसे कुछ सोच रही हो, फिर बोली, “चल”।
लॉन में एक छोटी सी हट बनी हुई थी, दोनों वहाँ जा कर एक बेंच पर बैठ गईं।
इवा ने एक बार फिर कोशिश की, “देख मैं तेरी तरह स्ट्रॉंग नहीं हूँ और न ही मैं तेरे लिए कुछ कर सकती हूँ पर तू अगर बताएगी नहीं तो मेरी टेंशन बहुत बढ़ जाएगी।”
मन्नत चुप रही।
इवा ने एक बार फिर कोशिश की, “प्लीज़ बता दे ना, मेरा दिल बहुत घबरा रहा है – प्लीज़!” कहते हुए इवा रोने लगी।
“अच्छा क्या जानना चाहती है तू? बताने में बहुत तकलीफ होती है मुझे - क्योंकि सब कुछ याद आते ही पूरे शरीर में गुस्से की चिंगारियाँ फूटने लगती हैं पर फिर भी बताऊँगी।“ कहते कहते मन्नत की आवाज कुछ सख्त हो गई।
जैसे–जैसे मन्नत अपनी आप-बीती सुनाती गई – इवा उसके चेहरे पर बदलते भावों को देखती रही। कभी तो उसकी आँखों में गुस्सा और आवाज़ में तल्खी आ जाती और कभी बोलते-बोलते अपने दर्द में डूबती-तैरती हुई, ख़यालों में खो कर चुप कर जाती। इवा उसके दर्द को महसूस करते हुए कभी सहम जाती और कभी लगता कि इतनी चोटें खा कर भी यह लड़की नहीं टूटी तो इससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। वाकई यह सही मायने में चैंपियन है – देर रात तक वे दोनों बातें करती रहीं।
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मन्नत का बचपन और उसकी किशोरावस्था का हर चैप्टर खून के आँसुओ से लिखा गया था। जिस उम्र में बच्चे अपने पेरैंट्स से परियों की कहानियां सुनते हैं और अपने मम्मा-पापा के बीच में सोने के लिए मचलते हैं, मन्नत ने न तो वह वक़्त देखा और न ही उसे पता चला कि माँ बाप का लाड-प्यार क्या होता है। डर और दहशत के माहौल में बड़ी हुई वह। काँच टूटने की आवाज़ें, ज़ोर से थप्पड़ मारने की गूँज, चीखें, चिल्लाहट, गंदी-भद्दी गालियाँ, दरवाज़ा ज़ोर से पटकना – सब कुछ उसके कानों में अभी तक गूँजता है, ऐसा लगता है जैसे किसी ने उसके कानों में गरम उबलता तेल डाल दिया हो और इन सबके बीच किसी ज्वालामुखी में से आग के गोले-सा फूटता एक शब्द, ‘मुसीबत।’
हालाँकि वह सब पीछे छूट चुका है पर फिर भी इन आवाज़ों का शोर उसे अब भी दहला देता है। जब कभी उदास होती या बहुत आक्रोश में होती तो कंप्यूटर-रूम में जाकर अपनी मेल खोल कर बैठ जाती और अपने बचपन की अनसुलझी डोरों के सिरे जोड़ती रहती। पुरानी ई-मेल्स में नए अर्थ खोजती हुई अपनी ज़िन्दगी के मायने ढूँढने की कोशिश करती। पिछले बारह-तेरह साल की ज़िन्दगी उसके ई-मेल बॉक्स में क़ैद है। मन्नत डॉक्टर विनीत मेहरा और डॉक्टर सीमा मेहरा की इकलौती संतान है।
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एम्स से एमडी करने के बाद जब जोधपुर के रहने वाले डॉ विनीत मेहरा ने जयपुर में अपनी प्रैक्टिस शुरू की तो जल्द ही उसकी प्रेक्टिस चल निकली। पूरे शहर में फैले नाम और शोहरत के चलते उसके माता-पिता ने शादी के लिए भी ज़ोर डालना शुरू कर दिया। विनीत की कोई विशेष माँग नहीं थी – सिर्फ एमडी लड़की चाहता था।
प्रोफेसर कमलकान्त ओबराय की दोनों बेटियाँ पढ़ने में अच्छी थीं। बड़ी बेटी अंजलि अमेरिका में किसी नामी कॉलेज में सायकॉलोजी की लेक्चरार थी – उसने शादी नहीं की थी। छोटी बेटी सीमा के एमडी करते ही जब किसी सहयोगी ने शादी के लिए विनीत का नाम सुझाया तो उन्हें यह प्रस्ताव अच्छा लगा। पहली बात तो यह कि पंजाबी लड़का और वह भी एमडी। उन्हें लगा कि विनीत मेहनती और महत्वाकांक्षी भी है, सीमा के लिए ठीक रहेगा। सीमा ने जब विनीत की फोटो देखी तो तुरंत ही उसने हाँ करने का मन बना लिया। विनीत ने भी तुरंत हाँ कर दी क्योंकि सीमा इंटरनल मेडिसिन में एमडी थी और देखने में भी अच्छी थी।
विनीत और सीमा को जब पहली बार मिलवाया गया तो दोनों ने बिना दूसरी बार सोचे हाँ कह दी और शादी की तैयारियां शुरू हो गईं। विनीत के क्लीनिक में कुछ जगह खाली करके एक और कैबिन बनवा दिया गया और शादी से पहले ही डॉक्टर सीमा की नेम प्लेट वहाँ लग गई। सीमा ने शादी के तुरंत बाद ही वहाँ बैठना शुरू कर दिया। उसकी अपने विषय पर अच्छी पकड़ थी और शहर में विनीत की प्रैक्टिस पहले ही जम चुकी थी इसलिए सीमा को भी अपनी प्रैक्टिस जमाने में ज़्यादा परेशानी नहीं हुई। विनीत का सपना था कि जयपुर में अपना हॉस्पिटल खुल जाए। सीमा के भी बड़े-बड़े सपने थे पर उसकी हॉस्पिटल खोलने में कोई दिलचस्पी नहीं थी, वह तो रिसर्च के लिए विदेश जाना चाहती थी। अपनी-अपनी प्राथमिकताओं के कारण दोनों चाहते थे कि जल्दी बच्चा न हो।
शादी के कुछ ही महीने बाद जब सीमा ने कन्सीव कर लिया तो कई दिन तक घर में तनाव का माहौल रहा। इस गलती के लिए दोनों एक-दूसरे को दोषी ठहराते थे। मन्नत के आने को सीमा ने तो अपना भाग्य मान कर संतोष कर लिया पर विनीत ज़्यादा चिड़चिड़ा हो गया था।
दोनों की सोच और स्वभाव अलग थे। जहाँ विनीत ज़रा सी बात पर गुस्से में आ जाता था वहीं सीमा भीतर-ही-भीतर कुढ़ती रहती और अपने गुस्से पर काबू पाने की कोशिश करती रहती। कभी-कभी तो विनीत क्लीनिक में सबके सामने सीमा को डाँट दिया करता था। दोनों सुबह नौ बजे क्लीनिक पहुँच जाते थे और रात दस बजे तक वहीं रहते थे - दिन में तीन घंटे क्लीनिक बंद रहता था।
प्रेग्नेंसी के दौरान सीमा की तबीयत कभी-कभी ठीक नहीं होती तो वह देर से उठती थी – इस बात पर विनीत बहुत चिढ़ता था क्योंकि यह उसे कतई पसंद नहीं था कि मरीज़ बैठे हों और डॉक्टर वक़्त पर न आए। सीमा जब अपनी तबीयत खराब होने की बात करती तो वह गुस्सा हो जाता, “डॉक्टर की अपनी कोई लाइफ नहीं होती, चाहे कितना भी बीमार हो, दवा खा कर क्लीनिक पहुँच जाना चाहिए। मरीज़ बहुत विश्वास के साथ डॉक्टर के पास पहुँचता है, अगर डॉक्टर वहाँ न मिले तो मरीज़ का विश्वास टूट जाता है और वह आना बंद कर देता है।”
सीमा के पास अपना तर्क था, “मेरी सेहत ही जब ठीक नहीं है तो मैं मरीज़ को देखूँ या अपने आप को संभालूँ?”
विनीत पर इन बातों का कोई असर नहीं होता था और जिस दिन भी सीमा लेट हो जाती, वह खुद तो क्लीनिक चला जाता और वहाँ से बार-बार फोन करता कि जल्दी आओ तुम्हारे पेशेंट्स बैठे हैं। किसी दिन अगर उसे ज़्यादा देर हो जाती थी तो झल्लाता हुआ वह स्वयं घर पहुँच कर उसे खरी-खोटी सुनाने लगता और जब सीमा के सब्र का बांध टूट जाता तो वह भी बहस करने पर उतर आती थी। धीरे-धीरे घर में भी छोटी-छोटी बातों से आपस में टकराव रहने लगा। जैसे-जैसे डिलिवरी का समय नज़दीक आता गया, सीमा भी चिड़चिड़ी होती गई। कभी-कभी विनीत के डर से क्लीनिक चली भी जाती तो वापिस आ कर बीमार पड़ जाती।
सीमा को आशा थी कि बच्चे के जन्म के बाद उसकी तबीयत ठीक हो जाएगी परन्तु ऐसा हुआ नहीं। बेटी के जन्म के बाद 10-15 दिन तक तो सीमा सामान्य रिकवरी कर रही थी परन्तु उसके बाद वह बहुत उदास-सी रहने लगी। घर के माहौल में उसे घुटन महसूस होती थी। डॉक्टर शिल्पा गर्ग ने बताया कि बच्चे के जन्म के बाद हार्मोनल और इमोशनल कारणों से कई औरतें उदास रहने लगती हैं और कुछ दिन में यह ठीक भी हो जाता है। उन्होंने कुछ दवाएं लिख दीं और विनीत से कहा कि सीमा को कुछ ज़्यादा वक़्त दे।
विनीत देर रात थक कर अपने क्लीनिक से वापिस आता था - न तो सीमा को वक़्त दे पाता था और न ही रात को मन्नत के जागने पर उसे गोद में ले सकता था। किसी रात यदि मन्नत ज़्यादा रोती तो वह दूसरे कमरे में जा कर सो जाता। सीमा की हालत खराब होती जा रही थी। जब मन्नत दो महीने की होने वाली थी तो विनीत ने उसे फिर से क्लीनिक शुरू करने की सलाह दी ताकि वहाँ जा कर उसका मन बहला रहे। सीमा ने पूरी ईमानदारी से कोशिश की भी पर उससे यह सब हो नहीं सका। क्लीनिक जाती तो कुछ देर में ही उसे घबराहट होती और वह वापिस चली आती।
कई बार तो वह दवाएं खा कर सारा दिन सोती रहती और क्लीनिक भी नहीं जाती। कई बार इतनी तेज़ आवाज़ में चिल्लाती कि पूरे घर में उसकी आवाज़ गूँज जाती। जब उस पर रोने का दौरा पड़ता तो कई दिन तक रोती ही रहती – न तो ढंग से खाना खाती और न ही कपड़े वगैरह बदलती। उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति को देखते हुए कोई भी विश्वास नहीं कर सकता था कि वह एक प्रतिभाशाली और काबिल डॉक्टर है।
उसके क्लीनिक न जाने से विनीत बहुत बिगड़ता था – हर दिन घर में बहस होती। कई बार तो विनीत गुस्से में आकर उस पर हाथ भी उठा देता। थी तो वह बहुत दुबली-पतली और कमज़ोर-सी – लेकिन जब कभी विनीत उस पर हाथ उठाता तो वह हिंसक शेरनी के समान उस पर टूट पड़ती और पूरी ताकत से हाथ-पैर चलाती। कई बार तो वह नाखूनों से उसका मुँह नोच लेती और फिर मार खा कर निढाल पड़ी रहती। लंबे डिप्रैशन और दवाओं की लगातार बढ़ती खुराक के कारण ठस्स हो चुके दिमाग के चलते मन्नत और सीमा में माँ-बेटी के रिश्ते वाली मिठास नहीं घुल पाई।
मन्नत मुश्किल से 6-7 महीने की थी जब वह माँ से बिल्कुल कट गई। उस वक्त यकायक ही सीमा ने उसे अपनी छाती से अलग कर दिया था। उस वक्त सीमा का डिप्रेशन बहुत बड़ा हुआ था। उस ने अचानक ही मन्नत को अपना दूध देना बंद कर दिया और इस दूरी का मतलब समझने के लिए उसे उसकी किस्मत के सहारे छोड़ दिया था। बच्चे की उम्र बढ़ने के साथ कोई माँ जब उसे अपना दूध पिलाना बंद करती है तो वह समय माँ और बच्चा, दोनों के लिए शारीरिक और भावनात्मक रूप से बहुत कठिन होता है। सबसे पहले तो माँ मानसिक रूप से अपने आप को इस वक्त के लिए तैयार करती है और फिर अपने अस्तित्व और अपने प्यार का अनुभव देने के लिए बच्चे को बॉटल से दूध पिलाने से पहले बार-बार उसे चूमती हैं, बाहों में समेट कर उसे सीने से लगाती हैं ताकि बच्चे को माँ के प्यार में कमी का एहसास न हो। मन्नत को इस तरह का कोई कम्फ़र्ट नहीं मिला था।
मन्नत बॉटल से दूध तो पी लेती पर रात को अपनी कॉट में सोते हुए बार-बार अपनी छोटी-छोटी उँगलियों से रबड़ की निप्पल को टटोलती और उसमें अपनी माँ को तलाश करती रहती। किसी विशाल जंगल में अपनी माँ से बिछड़े मृग-शावक सी व्याकुल वह ममता के स्पंदन और उसकी गर्माहट की तलाश करती हुई कच्ची-पक्की नींद में अपने हाथ-पैर चलाती रहती। कुदरत ने दुधमुंही मन्नत को इतना आभास तो दे दिया था कि कुछ छिन गया है पर इसकी वजह जानने की समझ नहीं दी थी। समय बीतता गया और किसी सहारे की तलाश में उसने दूध की बॉटल से माँ का रिश्ता बना लिया था।
मन्नत जब केवल सात-आठ महीने की थी तब से विनीत के ऑफिस की रिसेप्शनिस्ट अक्षिता कभी-कभी घर में आती थी, मन्नत की देखभाल करने। उसने शादी नहीं की थी। सीमा जब कई दिन तक बीमार रहती थी तो मन्नत से भी बिल्कुल कट जाती थी, ऐसे में उसे नहलाना, खिलाना, सुलाना - सब कुछ अक्षिता ही करती। मन्नत उसके सामने कोई जिद्द नहीं करती थी क्योंकि अक्षिता डिसिप्लिन की बहुत पाबंद थी।
सीमा की हालत जब बहुत खराब हो गई तो अक्षिता के लिए विनीत के घर में ही एक बेडरूम खाली कर दिया गया और मन्नत का बेड भी उसी कमरे में लग गया। मन्नत को जब अक्षिता के बेडरूम में सोना पड़ा तो शुरू-शुरू में तो वह उससे ऐसे डरती थी जैसे अपनी माँ की अनुपस्थिति में कोई चिड़िया का नन्हा-सा बच्चा अपने घोंसले में किसी अजनबी परिंदे को देख कर सहम जाता है लेकिन जैसे-जैसे सीमा अपनी बिगड़ती तबीयत के चलते मन्नत से दूर होती गई, उसने अक्षिता को स्वीकार तो कर लिया पर उसका डर नहीं निकला। जब भी अक्षिता उसे घूर कर देखती तो वह सहम जाती थी। धीरे-धीरे अक्षिता घर की प्रत्येक गतिविधि के केंद्र में आती गई और सीमा हाशिए पर सरकती रही। घर की सेटिंग से लेकर बिलों के भुगतान तक और किचन के मेन्यू से लेकर विनीत की वार्डरोब तक - हर जगह उसकी छाप दिखने लगी।
धीरे-धीरे अक्षिता ने भी मन्नत की परवरिश से हाथ खींच लिया और वह पूरी तरह से नौकरानियों के हाथों में ही पलने लगी। दिन-प्रतिदिन के लड़ाई-झगड़ों के कारण कोई मेड घर में टिकती नहीं थी - जो भी आती, कुछ दिन में छोड़ कर चली जाती। घर का काम-काज तो चलता ही रहता पर मन्नत हर दो-चार महीने बाद किसी नई मेड के हाथों में पहुँच जाती।
कुदरत ने औरत को एक विलक्षण शक्ति दी है। चाहे वह मृत्यु शैया पर भी पड़ी हो, किसी दूसरी औरत की आँखों में अपने पति के लिए आसक्ति वह पढ़ ही लेती है। अक्षिता और विनीत के बीच बढ़ रही नज़दीकी सीमा को नज़र आ रही थी पर वह कुछ बोलने की हिम्मत नहीं कर पाती थी।
मन्नत बार-बार सीमा के करीब जाने की कोशिश करती, उसके गले में बाहें डाल देती। मम्मा रोती तो उसे चुप कराने की कोशिश करती। सीमा कभी उसे प्यार कर देती तो मन्नत का चेहरा खिल उठता पर जब वह मन्नत को झिड़क कर हटा देती तो छोटी-सी बच्ची सहम कर किसी कोने में दुबक जाती।
कभी-कभी सीमा विनीत का गुस्सा मन्नत पर निकाल देती – उसे बेवजह झिड़क देती या कभी वह ज़्यादा रो रही होती तो उसे एकाध थप्पड़ भी लगा देती पर मन्नत फिर भी रोती हुई उसकी साड़ी का पल्लू पकड़े उसके पीछे-पीछे घूमती रहती।
एक दिन उसका विनीत से किसी बात को लेकर झगड़ा हो रहा था, मन्नत बार-बार रोती हुई उसके पास आ रही थी तो सीमा ने उसे थप्पड़ जड़ दिया - विनीत ने गुस्से में आकर सीमा को मार-मार कर अधमरा कर दिया था। मन्नत यह सब देख कर डर गई और उसने चीखें मार-मार कर आसमान सर पर उठा लिया।
रोज़-रोज़ के झगड़े से विनीत तंग आ चुका था। कई बार उसके मन में आया कि सीमा को उसके घर वापिस भेज कर उससे पीछा छुड़ा ले पर अक्षिता का सोचना था कि अगर सीमा ने अपने मायके जा कर कोई सच्ची-झूठी पुलिस कम्पलेंट कर दी तो हॉस्पिटल का सपना शुरू होने से पहले ही खाक मे मिल जाएगा।
एक दिन ऐसे ही दोनों में बहस हो रही थी। सीमा घर छोड़ कर जाने की रट लगाए हुए थी। विनीत भी बहुत गुस्से में था, “यह घर छोड़ कर जाने की धमकी मुझे मत दो, निकल जाओ यहाँ से – पता नहीं किस मनहूस घड़ी में मैं तुमसे शादी के लिए मान गया।” बात बहुत बढ़ गई तो विनीत ने कह दिया, “तुम अभी चली जाओ और अपनी बेटी को भी साथ ले जाओ। इस घर में चैन नाम की कोई चीज़ नहीं है।”
सीमा गुस्से में हाथ-पैर पटक रही थी, “यह तुम्हारी भी बेटी है, तुम इसे रखो, इसकी ज़िम्मेदारी लो।” तीन साल की मन्नत की समझ में पूरी बात तो नहीं आ रही थी, सिर्फ इतना समझ रही थी कि उसका नाम भी बीच में आ रहा है और दोनों में से कोई उसे अपने पास रखने को तैयार नहीं है।
विनीत कह रहा था, “अभी छोटी है तुम ले जाओ, जब थोड़ी बड़ी होगी तो मैं रख लूँगा पर मेरा पीछा छोड़ो तुम, मेरा तो जीना मुश्किल कर दिया तुमने। सारा दिन क्लीनिक में मरीजों के साथ खपना पड़ता है और घर में तुम्हारा ड्रामा चलता है। तुम मेरा पीछा छोड़ो और इसको लेकर चली जाओ। खर्चा मैं इसका पूरा देता रहूँगा और तुम्हारे लिए भी सब बंदोबस्त कर दूँगा।”
सीमा ज़ोर से चिल्ला कर बोली, “इतना बड़ा दिल नहीं है तुम्हारा कि इसके या मेरे बारे में सोच सको। तुम्हें अभी अपना हॉस्पिटल शुरू करना है इसलिए इस ज़िम्मेदारी से बचना चाहते हो। इसके यहाँ रहने से तुम्हारी रंगरेलियों में भी रुकावट आएगी इसीलिए तुम चाहते हो कि इस मुसीबत को मैं अपने साथ ले जाऊँ।” विनीत ने गुस्से में आकर उसे तीन-चार थप्पड़ लगा दिए।
तीन साल की बच्ची हैरान थी, “मेरा नाम तो मन्नत है – मम्मा मुसीबत क्यों कह रही है।”
उस वक़्त मन्नत की समझ से बाहर की बात थी पर जब बड़ी हुई तो समझ में आने लगा कि इस शब्द का क्या मतलब है – जैसे-जैसे समझ का दायरा बढ़ता गया उसे अपने आप से नफरत होने लगी कि उसे कोई अपने पास रखने के लिए तैयार नहीं था।
6
विनीत और सीमा में रोज़-रोज़ की मार-पीट आम बात हो गई थी और फिर आई वह कयामत की रात जिसने मन्नत की ज़िंदगी में तूफान ला दिया। मन्नत उस समय शायद चार साल से कम थी। उस रात जो कुछ हुआ, मन्नत के दिमाग से निकलता ही नहीं है - सभी कुछ जैसे अभी-अभी घटा है।
विनीत के हाथ में गिलास था और दोनों में इस बात पर बहस हो रही थी कि घर के इतने खराब माहौल के लिए कौन जिम्मेदार है। यकायक विनीत गुस्से में आकर आपे से बाहर हो गया और हाथ में पकड़ा हुआ गिलास उसने पूरी ताकत के साथ ज़मीन पर पटक दिया। एक ज़ोर का धमाका हुआ और काँच के टुकड़े कमरे में दूर तक बिखर गए, मन्नत ने अपने कानों पर हाथ रख लिए और डर कर चीखने लगी। काँच टूटते देख कर सीमा पर जैसे पागलपन का दौरा पड़ गया – उसने टेबल से क्रॉकरी उठा-उठा कर फर्श पर फेंकनी शुरू कर दी। सीमा के पास खड़ी मन्नत दहशत से चीख रही थी पर सीमा का हाथ रुक ही नहीं रहा था। विनीत की हिम्मत नहीं हुई कि वह सीमा तक पहुँच कर उसका हाथ रोक सके।
तेज़ आवाज़ें सुन कर अक्षिता भाग कर कमरे में आई तो मन्नत को रोते देख कर उसे उठाने के लिए आगे बढ़ी। अनदेखी में उसका पैर एक कप की किरच पर आ गया और चप्पल के सोल को काटता हुआ काँच पैर में धंस गया – वह वहीं फर्श पर गिर गई। फर्श पर खून से सनी चप्पल के निशान पड़ गए। खून देखते ही मन्नत ने और ज़ोर से चीखना शुरू कर दिया।
किसी तरह फर्श पर फैली काँच की किरचों से बचता हुआ विनीत सीमा तक पहुँचा और उसने सीमा की बाज़ू पकड़ कर इतने ज़ोर से मरोड़ा कि उसकी चीखें निकल गईं – पर जैसे ही विनीत ने उसका हाथ छोड़ा, सीमा ने उसके हाथ पर दाँत से काट लिया। विनीत दर्द से बिलबिला उठा, गुस्से से उसने इधर-उधर देखा तो लकड़ी का एक हैंगर टेबल पर पड़ा नज़र आ गया। विनीत के सिर पर जैसे खून सवार था - उस हैंगर से वह सीमा को तब तक मारता रहा जब तक वह बेसुध नहीं हो गई। वह जब ज़मीन पर गिरी तो उसके हाथों, कंधे, टांगों और चेहरे पर कई जगह से खून रिस रहा था। मन्नत बिलखते हुए उससे लिपट गई और उसका हाथ पकड़ कर उठाने की कोशिश करने लगी।
अक्षिता ने आगे बढ़ कर मन्नत को गोदी में उठाया और पैर के दर्द से लंगड़ाती हुई उसे अपने कमरे में ले गई और उसके बेड पर लिटा दिया। मन्नत बहुत देर तक अपने मुँह पर कंबल लपेट कर रोती रही। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था परन्तु वह दहशत से काँप रही थी। रोते-रोते उसे हिचकियाँ लग गईं, डर के मारे वह अपना मुँह तकिए में छुपा रही थी। कुछ देर में क्लीनिक के कर्मचारी बेहोश पड़ी सीमा को उठा कर ले गए।
झगड़े और मारपीट की आवाज़ें सुन कर किसी पड़ोसी ने पुलिस को फोन कर दिया था। कुछ देर में पुलिस आई तो मन्नत और डर गई। काफी देर के बाद अक्षिता आकर दूध की बॉटल उसके मुँह से लगा कर बाहर चली गई। मन्नत ने दूध नहीं पिया और रोते-रोते वैसे ही सो गई। कुछ देर बाद उसकी आँख खुली तो भूख लगी थी – निप्पल को मुँह लगाया तो उसमें से सिर्फ हवा आ रही थी। बॉटल खाली थी - सारा दूध तकिए और बेड पर बह गया था। काफी देर तक मन्नत खाली बॉटल को चूसती रही। कुछ देर बाद अपनी कॉट से नीचे उतर कर अक्षिता को जगाने की कोशिश करने लगी पर वह उठी नहीं। बहुत देर तक मन्नत हाथ में दूध की खाली बॉटल पकड़े अक्षिता को हिलाती रही और धीरे-धीरे उसे बुलाने लगी, “अक्की बुआ, दुद्दू पीना है, पेटू खाली – भुक्खी लगी।” जब अक्षिता की नींद खुली तो उसकी तरफ देखे बिना नींद में ही बड़बड़ाई, “सो जा बेटा। आपने दुद्दू पी लिया है।
मन्नत रोने लगी, “नई पिया, अक्की बुआ।” अक्षिता ने चौंक कर उसके हाथ में पकड़ी दूध की खाली बॉटल को देखा तो कुछ डाँट कर बोली, “सो जाओ अब, तंग मत करो।” और फिर मुँह फेर कर सो गई।
मन्नत वहीं खड़ी धीरे-धीरे सुबकती रही। आँखों में आँसू भरे और खाली बॉटल हाथ में लिए बार-बार किचन तक पहुँचने की कोशिश करती पर वहाँ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। किचन तक पहुँचने के लिए ड्रॉइंग-रूम से हो कर जाना पड़ता, जहाँ सारे फर्श पर काँच की किरचें और खून के धब्बे फैले थे। वहीं खड़ी वह बार-बार किचन के अंदर नज़र आ रहे फ्रिज को हसरत भरी नज़र से देख रही थी, एक-दो कदम आगे बढ़ाती पर काँच और खून देख कर डर जाती और छोटी-छोटी हथेलियों से अपनी आँखें पोंछती हुई वापिस आ जाती।
बहुत देर तक वह इधर-उधर देखती रही पर खाने के लिए कुछ नहीं मिला तो अक्षिता के सिराहने रखा पानी का गिलास उठा लिया। कुछ देर में पानी खत्म हो गया तो पापा के कमरे के दरवाजे पर धीरे-धीरे थपकती लगी - पापा-पापा।
मन्नत पूरी रात अपना टैडी बियर हाथ में पकड़े अंधेरे में इधर-उधर चक्कर लगाती रही। रात के सन्नाटे में वह बेहद दबे पाँव चल रही थी कि कहीं अक्षिता की नींद टूट गई तो वह गुस्सा करेगी। कभी थक कर बैठ जाती तो कभी फर्श पर लेट जाती – ज़रा-सी नींद आते ही अंतड़ियों में ऐंठन होने से वह फिर जाग कर सुबकने लगती। पेट का दर्द कम करने के लिए वह अपने टेडी बियर को बार-बार पेट पर कस कर दबा लेती। ऐसे ही सुबह हो गई। जब उसकी नींद खुली तो विनीत उसे गोद में उठा कर उसके बेड पर लिटा रहा था।
दोपहर को पुलिस के दोबारा आते ही विनीत का वकील भी आ गया। वकील के कहने पर ड्राइंग रूम के फर्श के कई फोटो खींचने के बाद ही फर्श को साफ करवाया गया। वह आखिरी दिन था जब मन्नत ने सीमा को घर में देखा था।
पहली बार तो सीमा ने मन्नत को अपनी छाती से दूर करके माँ से उसका रिश्ता काट दिया था और नियति के क्रूर हाथों ने मन्नत को दूसरी बार उसकी माँ से काट दिया परन्तु इस बार भी किसी ने उसे यह बताने या समझाने की ज़रूरत नहीं समझी कि माँ कहाँ गई है और क्यों गई है - किसी ने उसे दिलासा भी नहीं दिया।
मन्नत दूसरी बार बिन माँ की हो गई।
सीमा को इस तरह घर से निकाल दिए जाने के बाद कुछ दिन तक तो वह माँ के इस तरह से चले जाने को स्वीकार ही नहीं कर सकी और बौराई सी एक से दूसरे कमरे में उसे खोजती रही परन्तु कुछ दिन में ही वह समझ गई कि माँ अब जा चुकी है - उसने किसी से पूछा नहीं और न ही किसी ने उसे कुछ बताया।
जब पहली बार उसकी माँ छिनी थी तो एक बेशकीमती चीज़ फिर भी मन्नत के पास बच गई थी – वह थी उम्मीद; इसी उम्मीद के सहारे वह हमेशा साये की तरह माँ के पीछे-पीछे घूमती रहती कि कभी तो माँ प्यार करेगी। दूसरी बार माँ से कटने के बाद उम्मीद भी खत्म हो गई और मन्नत ने अपने आपको समेट लिया।
उस दिन घर में जो कुछ हुआ था, उसे लेकर उसके दिलो दिमाग पर हमेशा के लिए पापा और अक्षिता की दहशत हावी हो गई और वह इसी डर के साए में बड़ी होने लगी।
उस रात की भूख से मन्नत के मन में भूख का डर बैठ गया। हर रात सोते समय जब अक्षिता उसे दूध की बॉटल देती तो वह उसे पीने के बाद एक और बॉटल माँगती थी और न दिए जाने पर रो-रो कर आसमान सर पर उठा लेती थी। कभी वह दूसरी बॉटल भी पी लेती और कभी अपने बेड पर रख कर सो जाती। बहुत समय से मन्नत की एक आदत थी, पूरी रात अपने टेडी-बियर को पकड़े रहती थी। अब एक और आदत पाल ली थी उसने - सोते समय उसके दूसरे हाथ में अब दूध की बॉटल रहती थी। कई बार दूध बिस्तर पर गिर कर उसे खराब कर देता तो अक्षिता सुबह गुस्सा करती थी। बहुत समय तक विनीत और अक्षिता कोशिश करते रहे पर मन्नत ने गिलास से दूध पीना नहीं शुरू किया था। चार साल से ज़्यादा उम्र हो चुकने के बाद भी बच्चे का बॉटल से दूध पीना अजीब लगता था पर लाख कोशिशें करने के बावजूद मन्नत की दूध की बॉटल नहीं छूटी।
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विनीत की प्रैक्टिस बहुत ज़्यादा बढ़ती जा रही थी। अब वह और अक्षिता दिन में खाना खाने के लिए भी घर नहीं आते थे। रात को उनके आने से पहले मन्नत सो चुकी होती थी – अगर किसी दिन वह जाग भी रही होती थी तो डर के मारे अपने कमरे में ही दुबकी रहती थी।
सारा दिन मन्नत घर की मेड के पीछे-पीछे घूमती रहती। कभी ज़िद करके बहुत सारी आइसक्रीम या चॉकलेट खा लेती और फिर बीमार पड़ जाती। कभी न नहाने की ज़िद्द में सारा दिन गंदे कपड़े पहने और बिखरे बाल लिए इधर-उधर डोलती फिरती। माँ तो थी नहीं कि पुचकार कर, बहला-फुसला कर या बातों में लगा कर नहला देती – अक्षिता और घर की मेड को तो और भी बहुत काम थे।
वैसे तो कई कामकाजी महिलाओं के बच्चे नौकरानियों के हाथों में पलते हैं किन्तु ऐसी माताएँ काम पर जाते समय अपना दिल बच्चे के पास छोड़ जाती हैं - दिन में कई बार घर की मेड को फोन करके बच्चे के बारे में पूछती हैं। ऐसे बच्चों की परवरिश के लिए जिम्मेदार नौकरानियों में कुछ डर रहता है और बच्चे की माँ के प्रति उनकी जवाबदेही भी बहुत सख्त रहती है। मन्नत के मामले में शुरू से किसी की जवाबदेही नहीं रही।
सीमा के घर छोड़ कर जाने के बाद एक रात जब मन्नत नींद में डर कर जाग गई तो उठ कर अक्षिता के बेड के पास जा कर उसे जगाने की कोशिश करने लगी, जब उसने टटोल कर देखा तो अक्षिता को उसके बेड पर न देखकर मन्नत डर कर रोने लगी। रोते-रोते वह पापा के कमरे के दरवाज़े के पास खड़े होकर छोटे-छोटे हाथों से उसे थपथपाने लगी। थोड़ी देर में विनीत ने दरवाज़ा खोला तो अक्षिता अपना गाउन संभालती हुई कमरे से बाहर निकली और उसे गोद में लेकर बेड पर लिटाने के बाद वह अपने बेड पर लेट गई। अक्षिता को पापा के कमरे से निकलते देख कर मन्नत को कुछ अजीब-सा लगा। उसका अबोध मन कुछ सोच तो नहीं पाया पर वह दृश्य उसके मन पर अंकित हो गया – इस घटना के कई साल बाद मम्मा की पुरानी मेल्स पढ़ने के बाद ही वह सारी कड़ियाँ जोड़ पाई।
सीमा के चले जाने के बाद क्लीनिक में अक्षिता के रुतबे और उसकी सेलरी में एकदम उछाल आ गया था। उनकी नज़दीकियों की चर्चा क्लीनिक में अक्सर हुआ करती थी पर इस विषय पर खुल कर कोई नहीं बोलता था। विनीत से सीमा के सम्बन्धों में टकराव का कारण उसकी अक्षिता से नज़दीकी को भी माना जाता था।
अक्षिता की कोशिशों से विनीत पर सीमा को मारने-पीटने का पुलिस केस रफा-दफा हो गया तो विनीत उसकी समझ-बूझ का कायल हो गया था।
सारी जद्दो-जहद और तकलीफ़ों के बावजूद सीमा के जाने के एक साल के बाद विनीत ने अपना हॉस्पिटल खोल लिया था। अक्षिता बातचीत में तेज़-तर्रार और रुपए-पैसे के मामले में सख्त थी। हॉस्पिटल खोलने में उसकी सूझ-बूझ, व्यापारिक बुद्धि और सोशल सर्किल में उसकी अच्छी जान-पहचान का बहुत बड़ा हाथ था। विनीत मेहनती और काबिल था लेकिन एक अच्छे डॉक्टर से ज्यादा वह एक सफल व्यापारी और प्रशासक था। उसने अच्छी प्लैनिंग के साथ अपने सपनों को साकार रूप दिया और हॉस्पिटल को बहुत सूझ बूझ से स्थापित किया । हॉस्पिटल में 11 डॉक्टर काम करते थे। नर्सिंग, लैब्रटोरी, और रेडियोलॉजी सहित कुल 100 से अधिक डॉक्टर्स, नर्सेस और अन्य स्टाफ था ।
साढ़े चार साल की उम्र में जब मन्नत को हॉस्टल भेजा गया था तब तक अक्षिता उस घर में लगभग मालकिन की हैसियत पा चुकी थी। जिस दिन विनीत मन्नत को पहली बार हॉस्टल छोडने गया, तब भी उसके हाथ में दूध की बॉटल थी और अपने टेडी-बियर को उसने कस कर अपनी छाती से लगाया हुआ था। विनीत ने बहुत कोशिश की पर वह बॉटल छोड़ने को तैयार ही नहीं हुई। वहाँ खड़ी वार्डन और अन्य टीचर्स उसे देख कर हैरान हो रही थीं। अपने लंबे कद और भाव शून्य चेहरे के कारण अपनी उम्र के बच्चों की तुलना में मन्नत बहुत बड़ी लग रही थी और इस पर दूध की बॉटल अपने साथ रखने की ज़िद्द सब को अजीब लग रही थी।
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स्कूल में आकर मन्नत कभी आश्वस्त नहीं रही - पहले दिन से ही वह किसी-न-किसी डर के साये में जीती रही। पढ़ाई का डर, खाना न मिलने का डर, टीचर की डाँट का डर, अन्य बच्चों के द्वारा मज़ाक उड़ाए जाने का डर, मम्मा की तरह मार-पीट कर घर से निकाल दिए जाने का डर – यह सब उसके दिलो-दिमाग में इस कदर बैठ चुके थे कि न तो उसका ध्यान पढ़ाई में लगता और न ही वह बाकी बच्चों के साथ घुलती-मिलती। किसी के साथ उसकी दोस्ती नहीं पनप सकी और वह सबसे अलग-थलग पड़ती गई।
क्लास में टीचर जो भी पढ़ाती, मन्नत के सिर के ऊपर से निकल जाता क्योंकि वहाँ बैठे हुए उसको यही डर लगा रहता कि कहीं टीचर उससे कोई सवाल न पूछ ले। पढ़ाते-पढ़ाते टीचर कभी उसकी तरफ देखने लगती तो मन्नत की रूह तक काँप जाती – और जिस दिन वह कोई सवाल पूछ लेती तो मन्नत पसीने-पसीने हो जाती - चुप रहने के इलावा उसके पास कोई चारा नहीं होता था। धीरे-धीरे यह स्थिति आ गई कि टीचर जैसे ही मन्नत से कोई सवाल पूछती, सब बच्चे हँस देते और टीचर उसे वापिस बैठने के लिए कह देती। धीरे-धीरे पढ़ाई मुश्किल होती गई तो उसका डर और बढ़ता गया।
मन्नत का सारा दिन डरते हुए कट जाता और रात घुट-घुट कर रोते हुए। हॉस्टल हो या घर, उसकी ज़िन्दगी में शायद ही कोई ऐसा दिन आया होगा जब वह बिना रोए सोई होगी – अपनी मुट्ठियाँ कस कर तकिये के नीचे दबा देती और घुट-घुट कर रोती रहती। कोई ऐसा नहीं था जिससे वह अपने दिल की बात कह सकती। जब पापा का फोन आता तो उनसे कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती थी। उनसे जब भी कभी बात होती तो वे सिर्फ उसकी पढ़ाई और वीकली टैस्ट के नंबरों की बात करते और फिर उसे डांट कर बात खत्म कर देते - अगर कभी वह उसकी बात अक्षिता से करवा देते तो फोन पकड़ते ही उसके हाथ काँपने लगते। यह तो मन्नत ने बहुत छोटी उम्र में ही समझ लिया था कि अगर घर में रहना है तो अक्षिता को नाराज़ करने की गलती नहीं कर सकती।
छुट्टियों में हॉस्टल से घर पहुँचने के बाद अगले दिन से ही घर में ट्यूटर का आना शुरू हो जाता था और फिर शुरू हो जाता विनीत, अक्षिता और टीचर की डांट का सिलसिला।
टीचर के घर में आते ही मन्नत की जान सूख जाती – उसे जितना कुछ आता था, टीचर की एक डांट से वह सब कुछ भूल जाती। जो कुछ भी पढ़ती, समझ में नहीं आता। सब के गुस्से का शिकार बनती और घुट-घुट कर रोती रहती। मन्नत की पढ़ाई की समझ और उसमें कोई सुधार न देख कर विनीत टीचर पर बिगड़ता और टीचर मन्नत पर अपनी खीझ निकाल लेती। दसवीं तक तो वह क्लास में सब से पीछे रहने के बावजूद किसी तरह घिसट-घिसट कर पास होती रही पर प्लस-वन में आते ही सबजेक्ट्स मुश्किल हो गए और एग्ज़ाम्स का सिस्टम बदल गया। फाइनल एग्ज़ाम्स में वह फेल हो गई तो उसकी ज़िन्दगी और मुश्किल हो गई। फिर से जब वह प्लस-वन में बैठी तो अपनी कद-काठी और मंद-बुद्धि के तमगे के कारण नई लड़कियों में मज़ाक बन कर रह गई।
स्कूल की प्रिंसिपल कई साल बाद तक हँस-हँस कर नए आए बच्चों के पेरैंट्स को गर्व से उस का परिचय दिया करती थी, “इस लड़की को देखिए, दूध की बॉटल पकड़ कर इस स्कूल आई थी।”
चौदह-पंद्रह साल की उम्र में साढ़े पाँच फीट लंबी और मोटी हो चुकी मन्नत यह सुन कर झेंप जाती थी।
कुछ सीनियर लड़कियों का हॉस्टल में बहुत दबदबा था – उन सबकी लीडर थी पायल। प्लस-टू में थी वह – बहुत गुस्सैल और दबंग। पिता कहीं पुलिस कमिश्नर थे। रंग गोरा तांबई था - बेहद चौड़ी फूली हुई नाक और उभरी हुई गालों की हड्डियों से वह बहुत रौबदार लगती थी। स्कूल की हॉकी टीम में थी और इसके इलावा वह जूडो भी खेलती थी। उसका अपना एक ग्रुप था जिससे सभी डरते थे। मन्नत तो वैसे ही बहुत कमज़ोर दिल वाली थी, उसके सामने हमेशा बहुत सहमी हुई रहती थी – जब चाहे वह उसे गाली दे देती या उसका मज़ाक उड़ाती, मन्नत की हिम्मत नहीं थी कि उसे जवाब दे सके या वार्डन से उसकी शिकायत कर सके।
सभी लड़कियाँ उससे खौफ खाती थीं – कोई लड़की उसके खिलाफ आवाज़ उठाती तो वह थप्पड़ भी लगा दिया करती। प्रिन्सिपल या वार्डन के पास यदि कोई बात पहुँचती भी थी तो कोई लड़की उसके सामने कुछ बोलने की हिम्मत नहीं करती।
जिस किसी को वह कोई सबक सिखाना चाहती, हमेशा ऐसी जगह चुनती जहाँ कैमरा न लगा हो। अपने शिकार को प्रायः वाशरूम या किसी के कमरे में जा कर मारती थी क्योंकि वहाँ कैमरे नहीं लगे थे।
एक बार वार्डन को गुप्त सूचना मिली कि वह बाहर से वोडका की बॉटल लेकर आई है, उसके कमरे की तलाशी भी ली गई पर कुछ नहीं मिला।
पायल कई बार स्कूल में झगड़ा और मार-पीट कर चुकी थी, कई बार उसको काउन्सलर के पास भेजा जाता पर उससे कोई फायदा नहीं हुआ। इस सिलसिले में उसके पापा को भी कई बार बुलाया गया पर उसमें कोई सुधार नहीं हुआ।
स्कूल की प्रिन्सिपल की अनजाने में कही गई बात आगे चल कर मन्नत के लिए एक उपहास का कारण बन गई थी। पायल ने मन्नत को ‘मिल्क-बॉटल’ कहना शुरू कर दिया तो उसकी देखा-देखी बहुत सी लड़कियाँ उसे मिल्क-बॉटल के नाम से बुलाने लगीं। जब वह बहुत लंबी और कुछ मोटी हो गई तो पायल ने उसका नाम ‘बेबी-एलिफ़ेंट’ रख दिया। उसके ग्रुप की लड़कियाँ मन्नत को हमेशा तंग करती रहती थीं। पायल को देखते ही मन्नत के चेहरे का रंग पीला पड़ जाता तो वे सब खूब हँसतीं।
मैस में उसका हमेशा ही बुरा हाल किया जाता था। मन्नत हमेशा छुपती फिरती और किसी ऐसे कोने की तलाश करती रहती कि पायल की नज़र उस पर न पड़े लेकिन वह थी कि मैस में आते ही सबसे पहले मन्नत को तलाशा करती थी और फिर सारा ग्रुप उसे घेर लेता। उसके इर्द-गिर्द बैठ कर वे उसका खाना भी मुश्किल कर दिया करती थीं। कभी उसका चम्मच छिपा देतीं तो कभी उसकी दाल में पानी डाल दिया करतीं। मन्नत खाना कुछ ज़्यादा खाती थी – यह भी उनके उपहास का कारण था। एक दिन खाना खाते हुए एक लड़की चपाती लाने के लिए उठी तो साथ बैठी एक और लड़की ने कहा कि मेरे लिए भी एक चपाती ले आना। उस लड़की को शरारत सूझी, जब वह वापिस आई तो एक प्लेट में आठ-दस चपातियाँ लाकर मन्नत के सामने रख कर बोली, “बेबी एलीफेंट, अभी इससे काम चलाओ, और आ रही हैं।”
सब लड़कियों का हँसते-हँसते बुरा हाल हो गया। मन्नत बेचारी बिना खाए ही वहाँ से उठ कर चली गई।
रोज़-रोज़ के अपमान और प्रताड़ना से तंग आकर मन्नत ने एक बार स्कूल काउन्सलर कामिनी से बात की। कामिनी ने पायल को बुला कर समझा तो दिया पर इसके बाद बात और बढ़ गई। पायल ने ठान लिया कि मन्नत को अब चैन से नहीं रहने देना है, जहाँ भी मन्नत को देखती, उसके पीछे पड़ जाती।
7
स्कूल का कसौली में ट्रैकिंग टूर था। लड़कियों के साथ उनकी टीचर्स और वार्डन भी गई थीं। सुबह सात बजे बसें स्कूल से निकल गईं। जाते समय रास्ते में जाबली से कसौली तक नौ किलोमीटर की ट्रैकिंग करके जब कसौली पहुँचीं तो सभी लड़कियाँ थक कर चूर हो चुकी थीं। कसौली में सारा दिन बिताने के बाद, शाम को वापसी थी। वापिस आते हुए कॉफी पीने के लिए लड़कियाँ चंडीगढ़ की मार्केट में रुकीं। वहाँ आधा घंटा रुकने के बाद हॉस्टल जाने के लिए सब लड़कियाँ बसों में बैठ रही थीं। पायल और उसका ग्रुप अभी नहीं आया था - उनका इंतज़ार था और सभी टीचर्स मार्केट में इधर-उधर उनको खोज रही थीं। तभी एक टीचर ने लड़कियों से पायल के बारे में पूछा तो मन्नत ने बताया कि वह अपनी फ्रेंड्स के साथ पीछे आ रही है। टीचर उन्हें खोजने कुछ आगे बढ़ गई तो उसने पायल को एक शराब की दुकान से बाहर निकलते देखा, उसने चुपचाप जाकर वार्डन को बता दिया। वार्डन ने अपने मोबाइल से प्रिन्सिपल को इसकी सूचना दे दी।
जैसे ही उनकी बस स्कूल के गेट पर पहुँची तो कंपाउंड में प्रिन्सिपल, एड्मिनिस्ट्रेटर और मैनेजर के साथ कुछ टीचर्स को खड़े देख कर सभी लड़कियाँ चौंक गईं। बस से उतर कर वार्डन ने सब लड़कियों को रिसेप्शन पर चलने के लिए कहा। मन्नत को वाशरूम जाना था, जैसे ही वह दरवाज़े से अंदर गई, पायल भी उसके पीछे-पीछे आ गई। अंदर आते ही उसने अपने बैग से एक बॉटल निकाली और पलक झपकते ही मन्नत की पीठ पर टंगे पिट्ठू बैग में डाल दी। मन्नत सर से पाँव तक काँप गई, “यह क्या कर रही है? क्या है यह?”
“चुप कर – अगर ज़ुबान खोली तो तू बचेगी नहीं – मैं तेरा वो हाल करूंगी कि किसी को मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहेगी। तूने मेरी कम्प्लेंट की है न?” पायल की आँखों में वहशत देखकर मन्नत डर गई।
“पायल, मैंने कुछ नहीं किया, प्लीज़ ऐसा मत कर, निकाल ले इसको,”
पायल ने उसका हाथ पकड़ लिया और उसे बाहर की ओर धकेलने लगी।
“प्लीज़ मुझे टॉयलेट तो जाने दे।” मन्नत गिड़गिड़ाई पर पायल दरवाज़े के बीच अड़कर खड़ी हो गई और उसे बाहर की ओर धकेल दिया। मन्नत जब डगमगाते कदमों से रिसेप्शन एरिया में पहुँची तो उसे लग रहा था कि वह अपना होश खो कर गिर जाएगी। प्रिन्सिपल ने पायल के बैग खोल कर अच्छी तरह से देखा, पर कुछ नहीं मिला। बाकी सब लड़कियों के बैग भी देखे जा रहे थे। जब मन्नत की बारी आई तो उसे लगा कि पूरी धरती तेज़ी से घूम रही है। वार्डन ने उसे पैनी नज़र से देखा और उसका बैग खोल दिया – उसमें बॉटल देख कर सब सकते में आ गए। प्रिन्सिपल ने घूर कर मन्नत को देखा, “क्या है यह?”
मन्नत ने सहम कर पायल की ओर देखा पर उसकी खूंखार नज़रों का सामना न कर सकी और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी।
प्रिन्सिपल ने वहाँ मौजूद स्टाफ के सभी लोगों को कमरे में बुलाया और कुछ बातचीत करने लगी। कुछ देर बात करने के बाद उन्होंने मन्नत को अपने पास बुला लिया और पूछा, “यह बॉटल किसकी है? उसका नाम बता दो, डरो नहीं। तुम्हें कुछ नहीं होगा। अगर अब तुमने सच नहीं बताया तो बाद में कुछ नहीं हो सकेगा।”
मन्नत कुछ नहीं बोली, सिर्फ रोती रही। वार्डन ने उससे प्यार से भी पूछा पर उसने कोई जवाब नहीं दिया। अंत में हार कर प्रिन्सिपल ने बॉटल को एक कवर में सील करवा दिया - इसके इलावा एक पेपर पर सारी बात लिख कर सबके साइन ले लिए गए। साइन करते समय मन्नत के हाथ काँप रहे थे और वह रोए जा रही थी।
मन्नत जब रोती हुई प्रिन्सिपल के ऑफिस से बाहर निकली तो बाहर खड़ी लड़कियों के झुंड में हलचल शुरू हो गई। सभी लड़कियाँ अंदर हुई बातचीत के बारे में जानने के लिए उत्सुक थीं पर मन्नत बिना उनसे कुछ बात किए, भागती हुई अपने कमरे में चली गई। डिनर पहले ही लेट हो चुका था इसलिए सब लड़कियाँ सीधा मैस में चली गईं। मन्नत अपने कमरे से बाहर नहीं निकली। उसने खाना भी नहीं खाया। उसकी रूम मेट कनिका ने बहुत कहा पर मन्नत उठने के लिए तैयार नहीं हुई, बस रोती रही – वह सब लोगों का सामना नहीं करना चाहती थी।
अगले दिन न तो वह ब्रेकफ़ास्ट करने निकली और न ही क्लास में गई। वार्डन और काउन्सलर उसके कमरे में आईं पर मन्नत ने उनसे कोई बात नहीं की। कामिनी बहुत देर उसे समझाती रही पर मन्नत ने उसकी किसी बात का जवाब नहीं दिया। वार्डन ने मन्नत का नाश्ता कमरे में मँगवा लिया, उसने खाना शुरू भी किया पर थोड़ा-सा खा कर फिर रोने लगी। एक ही बात की रट लगा रखी थी उसने कि घर जाना है। दोपहर होते-होते उसे बुखार हो गया। डॉक्टर को बुलाया गया, उसने चेक करने के बाद बताया कि चिंता की कोई बात नहीं है पर मानसिक आघात बहुत गहरा है। उसने कुछ हल्की दवाएं लिख दी और इसके साथ यह भी कहा कि इसे अकेला नहीं छोडना चाहिए।
स्कूल में शराब मिलने की घटना ने सब को हिला कर रख दिया था। चूंकि लड़कियों के सामने ही यह सब कुछ हुआ था, बात अगली सुबह ही सारे स्कूल में फैल गई। प्रिन्सिपल और वार्डन बहुत तनाव में थीं – स्कूल मैनेजमैंट और पेरैंट्स को जवाब देना मुश्किल होगा, बदनामी अलग होगी।
दो दिन बाद प्रिन्सिपल के ऑफिस में अनुशासन कमेटी की मीटिंग हुई। डॉक्टर विनीत और पायल के पापा को भी बुलाया गया। प्रिन्सिपल ने विनीत को पहले ही पूरी घटना के बारे में बता दिया था - विनीत मन्नत को अलग ले जाकर बहुत देर तक उसे समझाता रहा पर वह कुछ नहीं बोली और न ही पायल के खिलाफ कुछ कहने के लिए तैयार हुई। गुस्से से भरा विनीत वापिस आ कर प्रिन्सिपल के कमरे में बैठ गया। बहुत देर तक चली इस मीटिंग में मन्नत को कसूरवार माना गया और पायल को उसकी सहायता करने का दोषी माना गया।
काउन्सलर सख्त सज़ा देने के पक्ष में नहीं थी। उसका कहना था कि लड़कियाँ हॉस्टल में हमारी निगरानी में रहती हैं और हम ही इनकी परवरिश करते हैं इसलिए कहीं-न-कहीं यह सिस्टम की गलती है और इस चूक के लिए हम सब सामूहिक रूप से ज़िम्मेदार हैं, मन्नत को कोई सख्त सज़ा देना उचित नहीं होगा। परन्तु प्रिन्सिपल का मानना था कि अगर आज कोई सख्त कदम नहीं उठाया गया तो लड़कियों में और उनके पेरैंट्स में गलत संदेश जाएगा। हो सकता है कल कोई लड़की ड्रग्स लेकर आ जाए तो हम उनके पेरैंट्स को क्या जवाब देंगे।
बहुत माथा-पच्ची के बाद मन्नत को दो महीने के लिए स्कूल से सस्पैंड करने का फैसला किया गया। कामिनी ने बाद में विनीत से अकेले में बात की, “जितने दिन यह वहाँ है, इसे किसी अच्छे काउन्सलर के कुछ सेशन दिलवा देना और इसके लिए पढ़ाई की कुछ व्यवस्था भी करवा देना ताकि इसका साल खराब न हो।”
जिस टीचर ने पायल को शराब की दुकान से निकलते देखा था, उसकी गवाही के आधार पर पायल को भी सज़ा सुनाई गई पर एक बार फिर उसके पापा के रसूख के कारण उस पर नरमी बरती गई - उसे सिर्फ सात दिन के लिए सस्पैंड किया गया। प्रिंसिपल संतुष्ट थी कि मन्नत के पापा ने कोई बखेड़ा नहीं खड़ा किया और फैसले को मान लिया।
फैसला सुन कर पायल एक दम से गुस्से में आ गई, “यू डोंट हैव एनी प्रूफ अगेन्स्ट मी।” पर उसके पापा उसे पकड़ कर बाहर ले गए। प्रिन्सिपल के कमरे से बाहर आते समय पायल मन्नत के पास आ कर धीरे से बोली, “दो महीने बाद तुझसे निपट लूँगी।”
मन्नत दोपहर तक अपना सामान पैक करती रही और रोती रही – विनीत इस बीच रिसेप्शन एरिया में गुमसुम-सा बैठा उसका इंतज़ार करता रहा। मन्नत जिस समय विनीत के साथ गाड़ी में बैठ रही थी, स्टाफ के बहुत से लोग और कई लड़कियाँ वहाँ जमा हो गए थे। मन्नत बेतहाशा रो रही थी पर विनीत बिल्कुल चुप था।
जैसे ही ड्राइवर ने गाड़ी स्टार्ट की तो विनीत की चुप्पी टूटी, “ऑय एम अशेम्ड ऑफ यू। तुम एक बार सबके सामने उसका नाम ले लेती तो मैं देखता कि उसके बाप की क्या औकात है, अब भुगतो खुद। सब लोग तुम्हारी फेवर में थे, मैं वहाँ था पर तुम्हारा तो दिमाग खराब हो गया था। यू आर जस्ट ए डफर, ए कावर्ड – अपना करियर बर्बाद कर दिया। तेरे लिए पेड मेडिकल सीट का इंतजाम किया हुआ है पर यहाँ तो प्लस-वन ही पास होना मुश्किल लग रहा है – प्लस-टू तो दूर की बात है।”
विनीत बहुत देर तक अपने दिल की भड़ास निकालता रहा पर मन्नत पूरे रास्ते कुछ नहीं बोली, सिर्फ गाड़ी से बाहर देखती रही और सोचती रही, “यैस, आय एम ए कावर्ड, ए डफर - आप बोलते रहो जो बोलना है। मैं अगर एक बार भी पायल का नाम ले लेती तो मुझ पर कहर टूट पड़ता। मुझे ही पता है कि यहाँ मेरे साथ क्या-क्या होता है।”
रास्ते में विनीत ने अक्षिता को फोन पर सब कुछ बता दिया। विनीत ने जिस भाषा का प्रयोग करते हुए अक्षिता को सारी बात बताई, मन्नत को बहुत बुरा लगा।
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मन्नत ने जब अपनी बात खत्म की तो कुछ देर तक खामोशी छाई रही। मन्नत लोहे की गार्डन बेंच पर बुत सी बनी बैठी थी। इवा ने उसका हाथ कस कर पकड़ा हुआ था और सहमी हुई सी एकटक उसे देखे जा रही थी। उसे लग रहा था कि उसने अभी-अभी कोई भयानक सपना देखा है। कुछ बोलने की या कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हुई उसे।
मन्नत ने फिर अपनी बात शुरू की, “मेरी ज़िन्दगी का वह सबसे बुरा दिन था। स्कूल में बदनाम होकर कायरों की तरह पायल से डर कर आ गई – घर पहुँच कर अक्षिता की मज़ाक उड़ाती हुई नज़रों का सामना करने का डर - पूरे रास्ते सुनी हुई पापा की गालियाँ और उनके उपदेश – मन कर रहा था कि रास्ते में हमारा एक्सिडेंट हो जाए और सब कुछ खत्म हो जाए।”
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मन्नत ने जब अपनी बात खत्म की तो सहमी हुई इवा बस इतना ही पूछ सकी, “इन सबसे कैसे मुक़ाबला किया तूने? उनसे कैसे लड़ाई की? तेरे पापा ने तुझे सपोर्ट किया?”
मन्नत की आवाज़ में अचानक कुछ तल्खी आ गई, “देख मैंने तुझे पहले भी कहा है, मेरे मम्मा-पापा के बारे में कोई सवाल न पूछना।”
इवा हल्की आवाज़ में बोली, “सॉरी ! अब नहीं पूछूंगी।”
मन्नत ने अपनी आवाज़ को फिर से धीमा कर लिया, “बात बाहर की लड़ाई की नहीं थी – बात अंदर की लड़ाई की है। हमें फैसला करना होता है कि हमारे बर्दाश्त की हद कहाँ तक है। जब यह लगा कि सब कुछ खत्म हो गया तो मैंने दूसरा रास्ता चुन लिया। जिस दिन फैसला कर लिया, मैंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा।”
मन्नत से अपनी घड़ी देखी और चौंक कर बोली, “चल सो जा अब, रात बहुत हो गई है।”
“पर तूने ये बताया नहीं कि तूने क्या किया कि बिल्कुल ही बदल गई?”
“सब बताऊँगी – अब जा के सो जा।”
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Author
Kultaran Chhatwal
M.Sc. Applied Psychology
PGD in Counselling & Behaviour Modification
Member, American Psychological Association
Relationship Coach II Adolescent Counsellor IICertified Career Mentor
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